निजी अस्पताल : आपदा में ‘अवसर’

Last Updated 21 Sep 2020 12:04:19 AM IST

जब मौका मरीज की जान बचाने का हो तो कोई कारगर इलाज चमत्कार सरीखा हो जाता है और डॉक्टर की भूमिका ईश्वर जैसी। ऐसी स्थिति में कोई शख्स इलाज की कीमत पर चाहकर भी सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर पाता है।


निजी अस्पताल : आपदा में ‘अवसर’

खास तौर से निजी अस्पतालों में लाखों के बिल के साथ जिंदा लौटने वाले मरीजों के परिजन इलाज के दौरान हुए खर्च पर खामोश रह जाते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने का मतलब अस्पताल और डॉक्टर की नाराजगी मोल लेना होगा, जिसकी कीमत मरीज की जान के रूप में चुकानी पड़ सकती है। लेकिन मौजूदा कोरोना संकट में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर सरकार निजी अस्पताओं में चल रही इस खुली लूट पर अंकुश क्यों नहीं लगाती।
बीमारियों के इलाज की कीमतें क्यों तय नहीं की जाती है, और अगर रेट तय हैं तो सरकार के आदेश की अवहेलना कर प्राइवेट अस्पताल मरीजों को लाखों के बिल क्यों थमा देते हैं। हो सकता है कि इसकी एक वजह यह हो कि जब मंत्रियों को अच्छे इलाज की जरूरत महसूस होती है तो वे खुद सरकारी अस्पताल ना जाकर प्राइवेट हॉस्पिटलों पर भरोसा करते हैं। तब सवाल पैदा होता है कि आखिर सरकारी अस्पतालों पर भरोसा जगाने के लिए क्या किया जा रहा है। जहां तक निजी अस्पतालों में महंगे इलाज की बात है तो बीते एक-डेढ़ दशक से ये शिकायतें आम हो गई हैं कि टेस्ट और इलाज के नाम पर लाखों के बिल बनते हैं। इलाज की महंगाई को लेकर स्वीकार्यता का आलम यह है कि मेडिकल इंश्योरेंस बेचने वाली कंपनियों जोरदार ढंग से विज्ञापन करती हैं कि अब प्राइवेट हॉस्पिटल में मामूली बीमारियों की चिकित्सा का मतलब है लाखों का बिल। पूछना चाहिए कि अगर इनके दावे गलत हैं तो झूठे विज्ञापनों के लिए सरकार इंश्योरेंस कंपनियों पर एक्शन क्यों नहीं लेती। और अगर इनके दावे सच हैं, तो निजी अस्पतालों के गोरखधंधे पर सरकार क्यों खामोश है। डेंगू, न्यूमोनिया सरीखी बीमारियों को छोड़कर अभी अगर कोविड-19 महामारी के टेस्ट और इलाज की ही बात करें तो शुरू से इन पर सवाल उठ रहे हैं। शिकायतें हैं कि प्राइवेट अस्पतालों में कभी डॉक्टर की विजिट के नाम पर तो कभी डॉक्टर और नर्स की पीपीई किट और ग्लव्ज़ के नाम पर मरीजों को हजारों-लाखों के बिल थमाए जा रहे हैं।

डॉक्टर भले ही एक ही पीपीई किट पहनकर दो दर्जन मरीजों के पास गया हो, लेकिन उस एक किट का पैसा हरेक मरीज से वसूला जाता है। कोई बीमारी होने पर इलाज नहीं करवा पाने की तकलीफ वही जान सकता है, जिसे इससे जूझना पड़ता है। देश में कोविड-19 के संक्रमण से पहले भी निजी अस्पतालों की लूट-खसोट ने लोगों को काफी परेशान किया है। हालात ये रहे हैं कि सिर्फ  दिल के मर्ज और कैंसर जैसे इलाज ही नहीं, सर्दी-जुकाम जैसी मामूली बीमारियों से छुटकारा पाने में देश के आम तबके के पसीने छूटते रहे हैं। कोरोना के संकट ने इसमें कई गुना इजाफा किया है क्योंकि यह आपदा प्राइवेट अस्पतालों से लेकर एंबुलेंस संचालकों तक के लिए एक शानदार अवसर में बदल गई है। इलाज के सरकारी ढांचे से जनता कितनी निराश है, देश के तमाम सरकारी अस्पतालों में कोरोना के मरीजों के साथ हुए हादसों ने यह साबित कर ही दिया है। इलाज की सरकारी व्यवस्था से निराश लोग जैसे-तैसे निजी अस्पतालों में चले जाएं, तो इलाज की कीमत ही उन्हें मार देती है।
प्राइवेट अस्पतालों के बारे में बनी यह धारणा निराधार नहीं है कि वे डॉक्टरों, फार्मा कंपनियों और प्राइवेट टेस्ट लैब्स की साठगांठ से ही चलते हैं। डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल्स डॉक्टरों के लिए ऐसे कोड ऑफ कंडक्ट बनाकर रह जाती है कि वे दवा कंपनियों से गिफ्ट न सकें  और मरीजों को मनवांछित प्राइवेट लैब्स में टेस्ट के लिए न भेज सकें, लेकिन इन कायदों के उल्लंघन पर किसी डॉक्टर-अस्पताल को दंडित किया गया है-ऐसी कोई जानकारी सामने नहीं आई है।
ज्यादा हंगामा होने पर सरकारें यह बंदरघुड़की देकर ही मौन हो जाती हैं कि आइंदा कोई गड़बड़ी पाई गई, तो उनका लाइसेंस छीन लिया जाएगा। सच्चाई यह है कि शायद ही किसी बड़े अस्पताल ही ऐसी कार्रवाई हुई हो। अमीरों को प्राइवेट अस्पतालों की लूट से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन मध्य वर्ग और गरीबों की तो इससे कमर ही टूट जाती है। अगर सरकार चाहती है कि ‘अनहोनी’ से डराए गए मरीज और परिजन महंगे इलाज को सहने के लिए अभिशप्त ना रहें, तो उसे पूरे हेल्थ सेक्टर के लिए ‘ऑपरेशन क्लीन’ की चलाने की जरूरत है।

डॉ. संजय वर्मा


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