मीडिया : कभी बाघ, कभी बकरी

Last Updated 20 Sep 2020 12:48:35 AM IST

अगर अपने खबर चैनलों की मानें तो देश में इस वक्त सिर्फ एक ही मुददा है:‘सुशांत की मौत’! बीते दो महीने से अधिकांश खबर चैनल सिर्फ इसी मुद्दे को फुलाने और फैलाने में लगे रहे हैं।


मीडिया : कभी बाघ, कभी बकरी

सुशांत की मौत की कहानी उनके द्वारा कुछ इस तरह से काती गई है कि अब मूल मुद्दा ही गायब हो चला है और जो बचा है वह बॉलीवुड का नशा और उसका खुमार है!  इसीलिए ऊब कर अब लोग पूछने लगे हैं कि क्या इस देश में सिर्फ यही समस्या है या कि कोरोना का रोज बढ़ता कहर, ठप पड़े उद्योग और बाजार, बेरोजगारी, सेविंग्स पर ब्याज कम होते जाना, बढ़ती  मंहगाई, किसानों का बढ़ता असंतोष और सीमा पर चीन से युद्ध का खतरा भी कोई राष्ट्रीय ‘समस्याएं’ हैं।
कोरोना के कारण पिछले छह महीने से लोग अपने मन को मसोस कर खामोश बैठ कर सब सह रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि जल्दी ही इस सबसे मुक्ति मिलेगी। लोगों में निराशा, अवसाद, तनाव व चिंताएं बढ़ रही हैं। मीडिया सोचता है कि इसकी सबसे अच्छी दवा है सुशांत की मौत की रहस्यकथा। शायद इसीलिए खबर चैनल तकलीफदेह मुद्दों को जरूरी मुद्दा नहीं मानते क्योंकि अगर इनको दिखाएंगे और जनता की मार्फत सत्ता से टेढ़े सवाल करेंगे तो उनको सरकारी विज्ञापन और सत्ता की कृपा कैसे मिलेगी? जबकि सुशांत की मौत की कहानी ‘एक पंथ दो काज’ की तरह उपयोगी है। उसकी ओट में आप एक छोटी सत्ता को ठोक कर किसी बड़ी सत्ता का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।

सवरेपरि, इस रहस्यकथा में राजनीतिक खेल की भी बहुत गुंजाइशें हैं। आप कहानी को गोले की तरह किसी की तरफ भी दाग सकते हैं और अगर निशाने पर महाराष्ट्र सरकार हो तो क्या कहने? एक तीर से कई निशाने साध सकते हैं। एक ओर एक ‘संयुक्त सरकार’ का घमंड तोड़ा जा सकता है तो दूसरी ओर बॉलीवुड का नशा उतारा जा सकता है और तीसरी ओर बिहार का चुनाव भी जितवाया जा सकता है। तिस पर छोटे इलाके के हीरो का पक्ष लेने का प्रगतिशील पुण्य अलग! लेकिन कभी-कभी ऐसी  कहानी के नीचे दबाई जाती कहानियां भी अपनी आवाज उठाने लगती हैं कि जो यह दिखाया-बताया जा रहा है, उसके असली कारक और हेतु कुछ अलग हैं। यों कोई पूछे तो चैनल कह सकते हैं कि हम तो एक मामूली घर से आए उभरते हीरो के प्रति अन्याय की त्रासद कहानी कह रहे हैं और चूंकि इस कहानी के तार अन्य बहुत सी कहानियों से जुड़े हैं, इसीलिए हम उनको बता रहे हैं, लेकिन मूलत: तो हम बॉलीवुड के ‘ए लिस्टर्स’ (नामी लोगों) के मुकाबले ‘स्ट्रगलर्स’ (कम नामी लोगों) की कहानी कह रहे हैं। इस कहानी मे नैतिकता भी है,  हीरोइनों के शोषण का विरोध भी है  और बॉलीवुड का नशा छुड़ाने का नैतिक उद्देश्य भी।
ऐसी नैतिक कहानी के जरिए मीडिया के वीर एंकर अपने अंदर की उस  कहानी को भी छिपा लेते हैं, जहां खुद ‘ए लिस्टर’ (बड़े एंकर रिपोर्टर) तमाम ‘स्ट्रगलर्स’ (नये पत्रकारों) के साथ उसी तरह का आचरण करते हैं, जिस तरह का आचरण करने के लिए बॉलीवुड के ‘ए लिस्टर’ करने के लिए बदनाम किए जा रहे हैं। सब जानते हैं कि अपने खबर चैनलों का मॉडल भी उसी तरह का ‘मुनाफाखोर बिजनेस मॉडल’ है, जिस तरह का ‘बिजनेस मॉडल’ बॉलीवुड का है। मीडिया में भी कुछ ‘ए लिस्टर’ एंकर करोड़ों रुपये महीने कमाते हैं, लेकिन अपने जूनियरों को अपने बराबर कभी नहीं बैठने देते। एक एंकर करोड़ रुपये से अधिक कमाता है, एक एंकर पचास लाख और एक सत्तर लाख महीने कमाता है, जबकि उसके नीचे काम करने वाले बहुतों को बीस-तीस चालीस हजार में निपटाया जाता है। बॉलीवुड के छोटे कलाकारों के लिए रोने वाले एंकर अपने जूनियरों के लिए कभी नहीं रोते और वो तक नहीं रोते जो दसियों लाख महीने लेकर भी अपने को किसी ‘क्रांतिकारी’ या ‘रेडिकल’ से कम नहीं समझते।
 सब जानते हैं कि सच्ची आलोचना घर से ही शुरू होती है, लेकिन अपना मीडिया अपने आप से कभी सवाल नहीं पूछता। इसीलिए ‘आजादी के लिए’ कुछ भी करने का दावा करने वाला मीडिया अंतत: ‘हिज मास्टर्स वायस’ बनने के अलावा कुछ नहीं बन पाता। और, इन दिनों तो वह ‘हिज  मास्टर्स वायस’ से आगे निकल ‘हिज मास्टर्स शिकारी’ जैसा बन चला है, लेकिन विडंबना यह है कि इस शिकारी का चेहरा दोहरा है : एक ही समय मे वह ‘बाघ’ भी है और ‘बकरी’ भी। कोई सहला देता है तो किसी पर झपट पड़ता है, लेकिन जब कोई पलट के धर देता है, तो उसके सामने बकरी बन मिमियाने लगता है, लेकिन फिर बाहर आकर शेर की तरह गुर्राने लगता है।

सुधीश पचौरी


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