मुद्दा : जलाशय-जोड़ से बनेगी बात
जिस देश की ज्यादातर खेती वर्षा से होने वाली सिंचाई पर निर्भर हो, उसके लिए यह एक अच्छी खबर है कि इस साल मानसून सीजन के दौरान अधिकतर जलाशय और बांध भर गए हैं।
![]() मुद्दा : जलाशय-जोड़ से बनेगी बात |
केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के मुताबिक एक जून से लेकर 16 जुलाई के दौरान हुई जबर्दस्त बारिश के चलते देश के 123 प्रमुख जलाशयों में जल का स्तर पिछले साल के मुकाबले डेढ़ सौ फीसद अधिक भरा हुआ है। जबकि 10 सालों के औसत जल स्तर के मुकाबले 133 फीसद है। जलाशयों में जल भंडारण की ताजा स्थिति से कृषि क्षेत्र की संभावनाएं बहुत अच्छी हो गई हैं।
कुछ राज्यों में बाढ़ हमेशा की तरह समस्याएं लाई है, लेकिन जो राज्य सूखा झेलते थे, वहां लबालब भरे जलाशय व बांध एक आस्ति दे रहे हैं। पर विडंबना यह है कि इन भरे जलाशयों से कोई दीर्घकालिक फायदा होगा-इसकी कोई संभावना बनती फिलहाल तो नजर नहीं आ रही। वजह यह है कि हमारे पास इन जलाशयों के बेहतर इस्तेमाल की कोई ठोस योजना नहीं है, जिससे या तो इनका पानी बेहद जरूरत के मौसम में भाप बनकर उड़ता नजर आता है या फिर उसका कोई बेजा इस्तेमाल किया जाता है। इसकी एक मिसाल हाल में मिली है कि हमारा देश बांध और जलाशयों में उपलब्ध पानी से कैसे निपटता है। मध्य प्रदेश में इंदिरा सागर और ओंकारेर बांधों में जब पानी उनकी क्षमता से अधिक जमा हो गया तो इनके क्रमश: 12 व 15 गेट खोल दिए गए। नतीजा यह निकला कि नर्मदा नदी के किनारे बसे सभी गांव जलमग्न हो गए हैं। असल में समस्या नदियों से लेकर बांधों-जलाशयों के पानी के प्रबंधन की है, जिसके बारे में हमारे योजनाकार और सरकारें कोई दूरदर्शिता नहीं दिखा पा रहे हैं।
नीतियों के इस अभाव के कारण ही बीते कई वर्षो में कम बारिश होने की स्थिति में हमने जलाशयों को सूखते और जनता को त्राहि-त्राहि करते देखा है। एक साल पर्याप्त वर्षा होने पर जलाशयों के जिस पानी को बेवजह बर्बाद होने के लिए छोड़ा जाता है, यदि वह कहीं और संग्रह कर लिया जाए तो शायद अगले वर्षो में पीने के पानी और सिंचाई के लिए जल संकट की नौबत न आए। देश में बीते दशकों में नदीजोड़ योजनाओं की तो चर्चा हुई है, जिसके पर्यावरणीय नुकसान हैं, लेकिन बांधों-जलाशयों के अतिरिक्त पानी और उनके रखरखाव की बात नहीं उठाई गई, जिससे सूखे और बाढ़, दोनों हालात को संभाला जा सकता है। इसके उलट जलाशयों के पानी के दुरु पयोग की कोशिशें जरूर होते हुए दिखाई दी हैं। जैसे कभी तो क्रिकेट के आयोजन आईपीएल के लिए मैदानों को हराभरा बनाने के लिए भयानक सूखे में भी जलाशयों का लाखों गैलन पानी बहा दिया जाता है, तो कभी बूचड़खानों और कोल्डड्रिंक्स बनाने वाली फैक्टरियों को उस पानी की निर्बाध आपूर्ति की जाती है। चार साल पहले 2016 में इन्हीं स्थितियों के मद्देनजर बॉम्बे हाईकोर्ट ने क्रिकेट की शीर्ष संस्था-बीसीसीआई पर यह सवालिया टिप्पणी की थी कि उसके लिए आईपीएल ज्यादा जरूरी है या आम लोगों की जिंदगी? महाराष्ट्र का ऐसा ही एक और उदाहरण वह है, जिसमें राज्य के सर्वाधिक सूखाग्रस्त जिलों में से एक अमरावती में प्रधानमंत्री राहत योजना के अंतर्गत को अपर वर्धा परियोजना बनाई गई, जबकि राज्य सरकार के एक निर्णय के तहत उसका पानी एक थर्मल पावर प्रोजेक्ट को दे दिया गया। इन्हीं गलत नीतियों और लापरवाहियों का नतीजा था कि 2016 में जब महाराष्ट्र भीषण सूखे की चपेट में आया तो इस राज्य के परभनी और लातूर जैसे शहरों में जलाशयों के इर्दगिर्द धारा 144 लागू कर दी गई थी।
असल में, बांधों-जलाशयों के पानी के उपयोग की प्राथमिकता पहले भी कई सवाल खड़े करती रही है। चूंकि देश की ज्यादातर खेती के लिए मानसून की बारिश एक सतत मजबूरी बनी हुई है, इसलिए बांधों-जलाशयों का पानी बेहतर प्रबंधन की मांग करता है। कुओं-बावड़ियों के खात्मे के अलावा डल संरक्षण के बारे ज्यादा जानकारी नहीं होने से किसान बरसाती पानी का सही उपयोग भी नहीं कर पा रहे हैं। जलाशयों में पानी हो, लेकिन भौगोलिक संरचना में ढाल व उतार-चढ़ाव हों तो वहां पानी वैसे भी नहीं रु कता और बर्बाद हो जाता है। बांधों का पानी अग चैनल या नहरों का जाल बिछाकर छोड़ा जाए, तो बाढ़ लाने की बजाय तमाम सूखे इलाकों की सिंचाई का साधन बन सकता है। सूखे क्षेत्रों में सिंचाई के लिए ट्यूबवेल और दूर स्थित तालाबों-नदियों से पानी खींचने के लिए पम्पसेट के इस्तेमाल को जलाशयों के अतिरिक्त पानी की मदद से रोका जा सकता है। नदी जोड़ की जगह अगर देश बांध या जलाशय-जोड़ की योजनाओं पर अमल करेगा, तो शायद यह काम ज्यादा व्यावहारिक होगा।
| Tweet![]() |