धर्म : हिंसा से धूमिल होती छवि
पिछले दिनों कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू से धार्मिंक हिंसा की खबर आई। इस हिंसा में तीन लोगों की मृत्यु हो गई जबकि सौ से ज्यादा लोग और पुलिसकर्मी घायल हो गए।
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मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो स्थानीय विधायक अखंड श्रीनिवास मूर्ति के एक रिश्तेदार द्वारा फेसबुक पोस्ट लिखने के कारण हिंसा हुई। ऐसा दावा है कि उस पोस्ट में पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी की गई थी, जिससे मुस्लिम समुदाय की धार्मिंक भावना आहत हो गई। लिहाजा, पुलिस थाने के सामने गुस्साई भीड़ ने थाने पर हमला बोल दिया और पूरे शहर में हिंसा की आग सुलग गई। इसमें कोई दो राय नहीं कि धर्म के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी से लोगों की धार्मिंक भावनाओं को ठेस पहुंचना जायज है, लेकिन उसके कारण शहर को आग को हवाले कर देना कतई जायज नहीं है। हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां विधि-विधान का शासन है यानी कानून सर्वोपरि है और कोई भी नागरिक कानून से ऊपर नहीं है। लिहाजा, कानून और अदालत का दरवाजा खटखटाने के बजाय कानून को अपने हाथ में लेना जुर्म है।
दरअसल, सवाल सिर्फ हिंसा तक ही सीमित नहीं है। इससे कहीं आगे का है और वह यह कि इस प्रकार की हिंसा से देश, समाज और दूसरे समुदाय को हम क्या संदेश देते हैं? एक ऐसे दौर में जब समाज में धर्म के आधार पर विभाजन और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बेहद मामूली बात हो गई है, तब किसी एक धर्म द्वारा हिंसा समाज में उसकी स्थिति को और विकट बनाती है। जाहिर है, इस प्रकार की हिंसा उस धर्म की छवि को धूमिल करने के लिए पर्याप्त है। हालिया बेंगलुरू हिंसा के कारण मुस्लिम समाज के खिलाफ रोष पैदा होना इसी का एक पहलू है। यह तो एक बात हो गई। ऐसी हिंसा के बाद दोषियों के जीवन का तबाह होना दूसरी बड़ी मुसीबत है। नौजवान लड़के अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा जेल के सलाखों के पीछे काट देते हैं यानी जिन युवाओं को अपना कॅरियर संवारना चाहिए, वे कुछ आवेश के चलते अपनी जिंदगी तबाह कर डालते हैं। इससे भी बड़ी चिंता की बात है कि इस हिंसा में केवल दोषी ही नहीं, बल्कि मासूम लड़के भी बलि की भेंट चढ़ जाते हैं। कुछ लोगों की गलती के चलते उनका भी कॅरियर बर्बाद हो जाता है। बेंगलुरू हिंसा के बाद भी कुछ परिजनों ने अपने निर्दोष बच्चों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाने की शिकायत की है।
इससे आगे देखें, तो धार्मिंक दंगों और विभाजन का राजनैतिक नुकसान भी है जिससे हालिया वर्षो में मुस्लिम समाज दो-चार होता रहा है। जब हमारे किसी नकारात्मक कार्य को आधार बनाकर गलत छवि गढ़ी जाने लगे और फिर उस पर सियासी रोटी सेंकी जाने लगें तब चुनावों में वोट विकास कार्यों के नाम पर नहीं, बल्कि धार्मिंक विभाजन के आधार पर पड़ता है। फलत: ऐसे जनप्रतिनिधि और सरकार चुन कर आ जाते हैं, जो योग्य नहीं होते यानी हमारा कृत्य न सिर्फ कौम, बल्कि समाज और देश को भी नुकसान पहुंचाता है।
बेंगलुरू हिंसा पर लौटें, तो इसकी वजह केवल एक फेसबुक पोस्ट थी। दो समुदायों के बीच कोई विवाद नहीं हुआ था यानी अगर संयम से काम लिया जाता, तो यह घटना टल सकती थी। हालांकि इसमें पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में जरूर है कि उसने आपत्तिजनक पोस्ट करने वाले व्यक्ति पर शीघ्र कार्रवाई नहीं की। लेकिन इससे किसी को यह लाइसेंस नहीं मिल जाता कि कानून को हाथ में लेकर कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाए। हालांकि आईपीसी, 1860 की धारा 295 से 298 में किसी की धार्मिंक भावना को भड़काना अपराध है। फिर धार्मिंक विविधता वाले समाज में किसी धर्म के खिलाफ टिप्पणी यकीनन लोगों को जानबूझ कर भड़काने के लिए की जाती है। लिहाजा, सरकार और प्रशासन को यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि दोषियों को अविलंब सजा देने की व्यवस्था बने।
इन सबसे इतर, एक मुस्लिम के तौर पर हम पैगंबर की शान को कमतर करने वाले पर भड़क तो जाते हैं, लेकिन यह सोचने की जरूरत है कि हम खुद पैगंबर की बातों पर कितना अमल करते हैं। अगर हम पैगंबर की राहों पर चलें, तो पता चलेगा कि उनके खिलाफ बोलने वालों को वह न सिर्फ माफ कर देते थे, बल्कि उनकी मदद भी करते थे ताकि गलती करने वालों को खुद गलती का अहसास हो। यकीनन, हमें भी पैगंबर की राहों पर चलकर, हर हाल में सहिष्णु बन कर दुनिया को इस्लाम का सही संदेश देने की जरूरत है।
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