स्वामी ब्रह्मानंद : संन्यासी जिसे बिसरा दिया गया
वैसे तो आधुनिक भारत के इतिहास में महात्मा गांधी के बाद स्वामी ब्रह्मानंद ही एकमात्र ऐसे भारतीय संत हैं, जिन्होंने अपनी समस्त आध्यात्मिक ऊर्जा का रचनाधर्मी प्रयोग जन-कल्याण के लिए किया।
स्वामी ब्रह्मानंद : संन्यासी जिसे बिसरा दिया गया |
दो प्रमुख कारणों की वजह से स्वामी ब्रह्मानंद को आने वाली पीढ़ी कभी नहीं भुला सकती है। पहला, शिक्षा के लिए किए गए उनके भागीरथ प्रयासों और दूसरा, गौ-रक्षा आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए। इनके जैसे संन्यासी के लिए ऐसा कर पाना इसलिए संभव हुआ क्योंकि वह ऐसे संत रहे, जिन्होंने अखाड़ा, आश्रम, परिषद या ऐसी किसी भी संस्था में रहकर खुद को कैद नहीं किया। इन्होंने अपने आप को सामाजिक सरोकारों से जोड़े रखा और समाज की आवश्यकताओं के लिए ही सदैव जूझते रहे।
उत्तर प्रदेश के जनपद हमीरपुर की तहसील सरीला के बरहरा गांव में 4 दिसम्बर, 1894 को पैदा हुए स्वामी ब्रह्मानंद ने महज 23 वर्ष की अवस्था में वैराग्य लेकर संन्यासी के रूप में बारह वर्षो तक पूरे देश का भ्रमण किया। इस दैरान इन्होंने देश के जनवासियों की भावनाओं और उनकी समस्याओं को जड़ से समझा और पाया कि कुल समस्याओं की जड़ लोगों की अशिक्षा ही है। लिहाजा इसके लिए इन्होंने काम करना शुरू किया। इन्होंने सर्वप्रथम पंजाब में हिंदी पाठशालाएं खुलवाई।
बीकानेर सहित राजस्थान के कई जल-विहीन क्षेत्रों में बड़े-बड़े तालाब खुदवाए और किसानों और दलितों के उत्थान के लिए अनेक संघर्ष किए। सांसद रहते हुए इन्हें जो धन मिलता था, उसकी पाई-पाई शिक्षा के लिए दान दे देते थे।स्वामी ब्रह्मानंद ने हमीरपुर के राठ में ब्रह्मानंद इंटर कॉलेज, ब्रह्मानंद संस्कृत महाविद्यालय और ब्रह्मानंद महाविद्यालय की स्थापना की। शिक्षाजगत में इनके सराहनीय योगदानों से प्रभावित होकर उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे चन्द्रभानु गुप्त ने एक सार्वजनिक समारोह में स्वामी ब्रह्मानंद को ‘बुंदेलखण्ड मालवीय’ की उपाधि से सम्मानित किया था। अपने दौर में स्वामी ब्रह्मानंद गौ-हत्या को लेकर चिंतित रहने वालों में सबसे आगे थे।
साल 1966 में हुए अब तक के सबसे बड़े गौ-हत्या निषेध आंदोलन के ये जनक और नेता थे, जिसमें प्रयाग से दिल्ली के लिए इन्होंने पैदल ही प्रस्थान कर दिया था, जिसमें इनके साथ कुछ और भी साधु-महात्मा थे। इनके नेतृत्व में गौ-रक्षा आंदोलन के लिए निकले जत्थे ने 1966 की रामनवमी को दिल्ली में सत्याग्रह किया, जिससे तत्कालीन सरकार घबरा गई और फिर स्वामी ब्रह्मानंद को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया था। गौ-वंश के प्रति इनके समर्पण का अंदाजा उनकी इस बात से ही लगा सकते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘गौ-वंश की रक्षा के लिए मैं सब प्रकार का त्याग करने को तैयार हूं।
यहां तक कि मैं अपने प्राणों की आहूति भी दे दूंगा।’ न तो जनसंघ की विचारधारा को आगे बढ़ा रहे दल और न ही कांग्रेस ने स्वामी जी को याद किया। यहां इस बात का जिक्र जरूरी हो जाता है कि स्वामी जी ने जनसंघ से इस्तीफा देकर कांग्रेस को क्यों ज्वाइन कर लिया था। दरअसल, साल 1966 के गौ-रक्षा आंदोलन ने स्वामी जी को देशभर में विख्यात कर दिया था। आम जन में स्वामी जी के प्रति अगाध श्रृद्धा जाग उठी थी। इसीलिए जनसंघ ने इस बात का भरोसा देकर कि वह गौ-रक्षा के लिए स्वामीजी को संसद के भीतर सहयोग करेंगे, यदि वह जनसंघ से चुनाव लड़ें।
लेकिन उन्हें राजनीति का पता नहीं था। जब स्वामीजी ने संसद के भीतर गौ-रक्षा पर अपना ऐतिहासिक भाषण दिया तो जनसंघियों ने अपनी चुप्पी साधे रखी। इस बात से स्वामीजी खासे नाराज हुए। जनसंघ के प्रति रुष्ठ होने का यह पहला कारण था। दूसरा, जब कांग्रेस ने सदन में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा उठाया तो जनसंघ ने इसका विरोध किया मगर स्वामी ब्रह्मानंद ने अपने विवेक का परिचय देते हुए इसे राष्ट्रहित में बताया और इंदिरा सरकार का समर्थन किया। इसके बाद तो जनसंघ और स्वामी ब्रह्मानंद के बीच दूरियां बन गई। बाद में स्वामी ब्रह्मानंद को इंदिरा गांधी कांग्रेस में ले आई।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती के राजनैतिक गुरु स्वामी ब्रह्मानंद ही थे। किंतु उन्होंने भी उन्हें बिसरा दिया। बहरहाल, अब सवाल यह है कि क्या भारतीय संसद का पहला गेरु आ-वस्त्रधारी सासंद जिसकी समावेशी रूप से उपादेय भूमिका बतौर संत भी रही और बतौर सांसद भी, यूं ही भुला दिया जाएगा? चाहिए तो यह कि स्वामी ब्रह्मानंद की 125वीं जयंती को सभी दल प्रमुखता से मनाएं और उनके बताए रास्तों पर चलें..उनकी दूर-दृष्टि का मनन करें। हालांकि यही लोग स्वामी के नाम का भरपूर उपयोग करते रहते हैं। इनके चूल्हे स्वामी ब्रह्मानंद के नाम पर गर्म होते रहते हैं।
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