श्रद्धांजलि : सबने कुछ-न-कुछ खोया

Last Updated 08 Aug 2019 02:22:45 AM IST

सुषमाजी का जाना न तो अस्वाभाविक था और न आकस्मिक। हमें यह आकस्मिक और अस्वभाविक लगता है क्योंकि जो लोग हमारे लिए खास होते हैं उन्हें हम अपने आसपास ही महसूस करते रहते हैं और जब वे चले जाते हैं तो लगता है कि अपने ही व्यक्तित्व का कोई भाग अचानक हम से छिन गया हो।


श्रद्धांजलि : सबने कुछ-न-कुछ खोया

जब भी मिलता था तो जवाहरजी कह कर ही बुलातीं थीं, लेकिन  जब कुछ समय पहले मिलना हुआ तो कैसे हैं कौल साहब के औपचारिक सम्बोधन से किंचित चौंका। अकस्मात मन में आशंका होने लगी कि वे भीतर से बुझी-बुझी सी महसूस कर रहीं हैं।
सुषमा जी का तन तो उसी दिन से पूर्ण अवकाश की तैयारी कर रहा था, जब उन्होंने लोक सभा का चुनाव न लड़ने का निश्चय कर लिया था और सक्रिय राजनीति से अलग रहने का फैसला किया था। मगर मन उस विशाल परिवार में ही रमा था जो उन्होंने अपनी लगभग आधी शताब्दी के वयस्क जीवन में बनाया था, जो अपने मायके या ससुराल, हरियाणा और दिल्ली में ही नहीं, केवल भारत में ही नहीं अपितु वि के हर महाद्वीप में फैला था। वह परिवार वंश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय के रिश्तों पर नहीं टिका था, न ही इस का खून का रिशता था। वे सहज, सरल और सौम्य मानवीय संबंधों के रिश्तों थे, स्नेह और ममत्व उसकी भाषा थी। समाजवादी परिवार में पलीं सुषमाजी का छात्र जीवन समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में बीता। उस का सकारात्मक परिणाम यह रहा कि देश की स्वतंत्रता के दो दशक पश्चात राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये  और जार्ज फर्नाडिस जैसे समाजवादी विचारकों के दौर में उनका राजनीति में प्रवेश हुआ।

स्वाभाविक था कि उनकी आंखों में  भारत के आम जन के दुख-दर्द  की छवि बैठ गई। जन साधारण के लिए कुछ करने की अभिलाषा जवानी के दिनों से ही पनपने लगी थी। ऐसे में जब राष्ट्रवाद का रंग चढ़ गया तो वह जय प्रकाश नारायण और दीनदयाल उपाध्याय की विचारधाराओं का ऐसा मेल हो गया, जिसमें सामाजिक न्याय की प्रखरता और मानवीय मूल्यों की सहृदयता मिली होगी। लोग कहते हैं कि उन की वाणी में सरस्वती का वास था। वास्तव में वाकपटुता उन्हें कॉलेज के दिनों से ही मिली थी, जो राजनीति के कारण धारदार बन चुकी थी जब वे भरतीय जनसंघ के साथ जुड़ गई। यह ऐसा दौर था जब कांग्रेस की विरोधी हवा बहने लगी थी। देश में गैर कांग्रेसवाद की लहर चल पड़ी थी। हालांकि सुषमाजी राष्ट्रीय राजनीति के लिए नई नहीं थीं, लेकिन वे उन गिने-चुने राजनैतिक नेताओं में से थीं, जो न तो राजनीति को युद्ध मानते थे और न ही केवल व्यवसाय। राजनीति मानवों के बीच होती है तो इस में मानवीय रिश्ते क्यों न सुरक्षित न रखे जाएं? इन्हीं सहज और सरल मानवीय रिशतों को सुषमाजी ने अपनी राजनीति में सुरक्षित रखा। पाकस्तान से कितने ही बच्चों और उनकी माताओं की आवाज उन्होंने अनसुनी नहीं की।
वे भूल गई कि उनके देश के शासक भारत के साथ दुश्मनी का व्यवहार करते रहे हैं। जब भी किसी निर्दोष और अबोध मानव की फरियाद सुषमाजी ने सुनी, वे पाकिस्तान के उस व्यवहार को भूल गई जिसके लिए वे उस देश को वि के अनेक मंचों पर फटकारती रही हैं। स्वाभाविक था कि समुद्र के बीच फंसे नाविक हों या किसी खाड़ी देश में; सुषमाजी पर सभी का भरोसा जग गया था कि जहां तक संभव होगा भारत के पास एक ऐसा विदेश मंत्री है जो फरियाद को अनसुना नहीं कर सकता है। एक मंत्री के नाते वे केवल इसलिए ही लोकप्रिय नहीं थीं कि उनका मधुर स्वभाव था, अपितु इसलिए भी कि सुषमा स्वराज एक असाधारण प्रशासक भी थीं। नौकरी या मजदूरी के लिए विदेश जाने में सबसे अधिक कष्टकर व्यवस्था वीजा की होती है। सुषमाजी ने सबसे पहले इसी व्यवस्था को सुधारने का काम किया। सुषमाजी की विदेशी राजनयिकों के बीच लोकप्रियता का लोहा अनुभवी और प्रशिक्षित राजनयिकों ने भी माना है। बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी होने के बावजूद सुषमाजी वास्तव में एक अनन्य देश भक्त थीं। जीवन के अंतिम क्षणों में भी वे देश के बारे में सोच रहीं थीं।
लोक सभा में कश्मीर के बारे में धारा 370 को हटाने पर बहस चल रही थी और सुषमाजी उत्सुकता के साथ इस बात की प्रतीक्षा कर रहीं थीं कि इस महत्त्वपूर्ण विधेयक को सांसद समर्थन देते हैं कि नहीं। उनको इस बात से संतोष हुआ होगा कि न केवल उनके दल अपितु गैर भाजपा दलों ने भी उसको भरपूर समर्थन दिया, जिसे वे देश के लिए आवश्यक मानतीं थीं। अपने ट्वीट में सुषमा ने लिखा कि  इसी की उन्हें प्रतीक्षा थी। सुषमाजी की राजनीति सरकारी  कामों से आगे नहीं जाती।
उनकी इसी विशेषता के कारण उनका सम्मान करने वाले केवल उन की अपनी ही पार्टी में ही नहीं अन्य राजनैतिक दलों में भी थे। शायद इसी विशेषता के कारण वे एक सफल विदेश मंत्री भी साबित हो सकीं। राजनय में संयम और धैर्य महत्त्वपूर्ण गुण माने जाते हैं। सुषमाजी बहुभाषी थीं, लेकिन विदेशों में अपनी राष्ट्रभाषा में बोलने का फैसला सुषमाजी ने अटल बिहारी वाजपेयी की ही प्रेरणा से लिया था। हिंदी उनकी प्राथमिकता थी। उनका मानना था कि कोई भी मंत्री अपने देशवासियों के लिए एक आदर्श होता है, विशेष रूप से एक विदेश मंत्री, क्योंकि वह देश का राजदूत भी होता है।  भाजपा में सुषमाजी को वरिष्ठ नेताओं का मार्गदर्शन प्राप्त  था। राजनीति में थोड़े ही लोग इतने समय तक टिके रह पाते हैं, जितने समय तक सुषमा स्वराज टिकी रहीं।
लालकृष्ण आडवाणी  और अटल बिहारी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक लगातार नेतृत्व का विश्वास पाना साधारण उपलब्धि नहीं है।   सुषमाजी के जाने से हम सब ने कुछ-न-कुछ खोया। किसी ने बहन, किसी ने मां, किसी ने साथी। लेकिन हमने सामूहिक रूप से ऐसी नेत्री खो दी, जैसी दशकों में एक बार पैदी होती है। उनके स्वभाव और कुशलता को देख अपने बच्चे का इलाज कराने आई एक पाकिस्तानी महिला ने जाने से पहले से कहा था काश आप हमारे मुल्क की प्रधानमंत्री होतीं।

जवाहरलाल कौल


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