सामयिक : कुछ न हो तो शोर मचाए
हर शहर के हिंदी अखबारों से वहां प्रचलित नये शब्द सीखने के चस्के के चलते जब इस बार पटना पहुंचने पर चमकी बुखार का नाम पढ़ा तो तुरंत जानने की इच्छा हुई कि यह क्या बला है?
सामयिक : कुछ न हो तो शोर मचाए |
मालूम हुआ कि यह वही इंसेफेलाइटिस बुखार जैसा मर्ज है, जिससे हर साल पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हर साल सैकड़ों बच्चे मर जाते हैं या जीवन भर के लिए कई तरह की अपंगताओं, जिसमें दिमागी अपंगता भी शामिल है, का शिकार बन जाते हैं।
कई दशकों से यह मर्ज हो रहा है और डॉक्टर इसे अभी भी एक्युट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम अर्थात एक लक्षण भर बताते हैं, उन्हें भी ज्यादा कुछ पता नहीं है। उनसे भी कम पता पत्रकारों को है, राजनेताओं को उससे भी कम पता है और मरने वाले बच्चों या उनके मां-बाप को तो कुछ भी पता नहीं है। पर चिंता किसी को नहीं है। हर मिनट ट्विटर और सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वालों को यह भी जरूरी नहीं लगता कि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के साथ जागरूकता वाला उतना ही तरीका जारी रहने दें वरना अब तो गरीब गांव का गांव खाली करके भाग रहे हैं। पूरब के समाज को इतना पता है कि यह बीमारी लीची के सीजन में होती है, लीची उत्पादक इलाकों में होती है, गरीब और पिछड़े घरों के बच्चों में होती है, रात में भोजन न करके सुबह लीची, वह भी जमीन पर पड़ी खराब लीची खाने वाले बच्चों को होती है। बच्चे को अचानक इतना तेज बुखार चढ़ता है कि उसका शरीर ऐंठने लगता है, जिसे स्थानीय लोग ‘चमकना’ कहते हैं। इसके बाद बच्चा बचता नहीं और बच गया तो सामान्य रहता नहीं। और यह सालाना मामला है। जैसे-जैसे विकासवा आगे बढ़ा है व सुशासनवा आया है; स्वास्थ्य योजनाओं की होड़ और बाढ़ आई है, मौत का सिलसिला आगे बढ़ता गया है।
बात निकलेगी तब दूर तलक जाएगी। लेकिन भूमंडलीकरण के बाद से स्वास्थ विभागों और राजनेताओं के लिए यह सालाना जलसा बनता गया है। तभी तो एक केंद्रीय मंत्री स्वास्थ्य मंत्री की प्रेस कांफ्रेंस में सोते मिले तो बिहार के स्वास्थ्य मंत्री की चिंता विश्व कप क्रिकेट में स्कोर जानने की थी। दो साल पहले गोरखपुर में तो हजार से ज्यादा मौत हुई थी क्योंकि उस सीजन में भी-जिसमें दुनिया जानती है कि यहां यह बुखार फैलता है और बच्चे मरते हैं-अस्पताल में आक्सीजन की आपूर्ति बंद थी। मुजफ्फरपुर में भी हर साल मौत का तांडव मचता है और तीन साल पहले ज्यादा मौत हुई थी। लेकिन यह सालाना घटना बन गई है। मामला जाहिर तौर पर पूर्व के इन दो शहरों भर का नहीं है। ज्यादा मामले तो इनसे लगने वाले देहात के होते हैं। मगर आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, प्रशासनिक और हर तरह की गतिविधियों का केंद्र होने के चलते यही दो शहर चर्चा में आते हैं क्योंकि बीमार बच्चों के मां-बाप अपनी बचत का आखिरी पैसा लगाकर या उधार लेकर आने बच्चे को इन्हीं शहरों के असपताल पहुंचते हैं, जहां साल दर साल यह आफत जानने के बावजूद न कोई खास सुविधा है, न तैयारी, न जरूरी साधन।
लम्बा जीवन पत्रकारिता में लगाने के चलते पटना से बाहर वाले होने के बावजूद वहां काफी पत्रकार जानकार हैं। चमकी की खबर देखकर जो बेचैनी मुझे अनुभव हो रही थी वह उनमें कहीं नजर न आती थी, जबकि खूब मालूम है कि वे मुझसे खराब या कम सरोकार वाले पत्रकार नहीं हैं। कुरेदने पर भी वे इस खबर पर ज्यादा तत्पर होने को तैयार लगते नहीं थे (बाद में पुष्यमित्र, जो एक बड़े अखबार की नौकरी छोड़ चुके हैं जैसे संवेदनशील पत्रकारों ने एक स्वयंसेवक मंडली बनाकर काफी काम किया भी। किसी अखबार में या स्थानीय चैनलों में भी मुझे इस खबर पर ज्यादा जोर नहीं दिखा। और हालत यह थी कि पटना से प्रकाशित एक भी अखबार ने इस बीमारी से हुई सैकड़ों मौतों के बाद भी सम्पादकीय लिखने की जहमत नहीं उठाई। इन्हीं पत्रकार दोस्तों का कहना था कि यह सब इस बीमारी के प्रति संवेदनशीलता से ज्यादा केंद्र और राज्य सरकार के प्रति भक्ति का मामला है। हाल में हुए लोक सभा चुनाव में राज्य की चालीस में से उनतालीस सीटें जीतने वाली जोड़ी के खिलाफ कौन सवाल उठा सकता है? सौभाग्य से दिल्ली की मीडिया में चुनावी सफलता की डुगडुगी बजाने के बाद हेडलाइन का अभाव हुआ और वे लोग खबरों की तलाश में इधर-उधर भी देखने लगे।
टीवी में कार्यरत दो बिहारी बड़े पत्रकारों अजीत अंजुम और अंजना ओम कश्यप ने खुद मुजफ्फरपुर पहुंच कर इसकी रिपोर्टिग की। उनका तरीका, खासकर दल-बल समेत आईसीयू में घुसने और और वहीं से खबर देने का, विवाद का विषय बना पर यह भी स्वीकार करना होगा कि वैसे झाडूमार तरीके से मसला न उठाने से किसी का ध्यान इस खबर पर न जाता। उसके बाद तो दो तीन दिन सारी मीडिया ने इस खबर को ऐसे उछाला कि सरकार के महारथी भागते और डरते नजर आए। स्वास्थ्य मंत्री हषर्वर्धन पहली बार मीडिया के सामने आने के बाद जबाब देने में छुप ही गए। बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने मीडिया की नजरों से छुपना ही उचित माना। हर बात पर सोशल मीडिया में सक्रिय नरेन्द्र मोदी ने तो आज तक इस सवाल पर कुछ कहा ही नहीं है। और जो लोग बोले वे अपनी कमजोरी और बेवकूफी बयान करते रहे कि यह लीची को बदनाम करने का षड्यंत्र है। सब कुछ शांत होने पर नीतीश कुमार ने विधान सभा में स्वीकार किया कि सुशासन के लम्बे दौर के बावजूद बिहार में चिकित्सा सुविधाओं और डाक्टरों का घोर अभाव है। पर मीडिया ट्रायल के इसी क्रम में यह बात सामने आई कि बिहार में ही नहीं उत्तर प्रदेश में भी स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अकाल है। और स्वास्थ्य और बीमा के नाम पर जो बड़ी-बड़ी योजनाएं घोषित हैं और चल रही हैं, उनका लाभ कमजोर, गरीब, बीमार और बच्चों को नहीं मिलकर जाने किस-किस को मिल रहा है?
दवा, चिकित्सा उपकरण बनाने वाली, स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय निजी कंपनियों और बीमा कंपनियों से लेकर नीतियां बनाने वाले और लागू करने वालों को इनसे निश्चित लाभ होगा तभी इनका जोर बढ़ता गया है। उससे भी ज्यादा यह बात सामने आई कि साल-दर-साल आने वाली इस महामारी को लेकर अपने यहां भी और विदेशों में काफी काम हुआ है और हमारे कर्ताधर्ता लोग उनसे बेखबर है। इस बीमारी का लीची से, कुपोषण और गरीबी से बहुत सीधा संबंध तो है, लेकिन इससे मौत को बहुत कम खर्च और तत्परता से रोका जा सकता है।
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