मुद्दा : सवालों के घेरे में श्रम सुधार
हाल के समय में अनेक श्रमिक व श्रमिक संगठन अनेक सवालों व समस्याओं से घिरे रहे हैं।
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जहां एक ओर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को अधिक बेरोजगारी झेलनी पड़ी है, वहां दूसरी ओर संगठित क्षेत्र में भी स्थाई मजदूरों के स्थान पर ठेका मजदूरों का प्रतिशत बढ़ने से इस क्षेत्र में भी परेशानी है। उद्योगों के वाषिर्क सव्रेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि उद्योगों में उत्पादकता बढ़ने के बावजूद कामगारों के लाभ में कम वृद्धि हुई है। 1980 के दशक के आरंभिक दौर में मजदूरी का हिस्सा 30 प्रतिशत था व मुनाफे का हिस्सा 20 प्रतिशत था, 1990 के दशक के बाद में यह हिस्से बदल गए।
हाल के समय में नेट मूल्य वृद्धि में मुनाफे का हिस्सा 50 प्रतिशत से ज्यादा हो गया व वर्ष 2007-08 में अपने चरम पर पहुंचते हुए 60 प्रतिशत का आंकड़ा भी पार कर गया। वित्तीय संकट के बाद यह कुछ कम होने पर भी संगठित उद्योग (मैनुफैक्चिरिंग) में यह नेट मृल्य वृद्धि के 50 प्रतिशत से अधिक बना रहा है। इसी समय के दौरान मूल्य वृद्धि में मजदूरी का हिस्सा कम होकर 10 प्रतिशत हो गया व हाल के वर्षो में इसके आसपास ही बना रहा है। इस शताब्दी के आरंभ से रोजगार प्राप्त कर रहे मजदूरों में ठेका मजदूरों का हिस्सा 20 प्रतिशत से कम था, पर एक दशक में यह एक-तिहाई से भी अधिक हो गया। ठेका मजदूरों की कार्य अवधि असुरक्षित होती है, उन्हें कम मजदूरी मिलती है व उन्हें सामाजिक सुरक्षा के लाभ नहीं मिलते हैं। संगठित क्षेत्र में 1980 के दशक में कामगारों की मजदूरी व प्रबंधकों के वेतन एक साथ बढ़ रहे थे, 1990 के दशक के आरंभिक दौर से उनकी दूरी बढ़ने लगी व यह तब से बढ़ती ही रही है। इसके नवीनतम आंकड़े वर्ष 2012 तक उपलब्ध हैं।
इस वर्ष तक प्रबंधकों के वेतन 10 गुणा से भी अधिक बढ़ गए पर कामगारों की मजदूरी 4 गुणा से भी कम बढ़ी। भारत के आर्थिक सव्रेक्षण 2017 में स्वीकार किया गया, भारत अपनी बढ़ती हुई श्रम शक्ति की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बहुत कम रोजगार का सृजन कर पाता है, व इस कारण अनेक व्यक्ति कामगार शक्ति से बाहर रह जाते हैं, अनेकों को अर्ध या अल्प रोजगार मिलता है व अनेक को बहुत कम मजदूरी या आय मिलती है। श्रम-सुधारों के नाम पर लगभग 44 श्रम कानूनों को 4 श्रम कोड में एकत्र किया जा रहा है। इन कोड का हाल में श्रमिक मामलों के जानकार ने अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि हालांकि यह श्रम कानूनों को सरलीकृत व सुगठित करने के नाम पर किया जा रहा है, पर इसके बारे में अनेक सवाल उठते रहते हैं कि इससे मजदूरों के अनेक वर्षो के संघर्ष से प्राप्त किए गए अधिकार कम हो सकते हैं व श्रम संगठन/ट्रेड यूनियन पहले से कमजोर पड़ सकते हैं। हालांकि इसके बारे में अभी अंतिम फैसला बाकी है और अभी चार श्रम कोड के प्रारूप ही उपलब्ध हैं, अंतिम कानून नहीं बना है। फिर भी इन कोड के प्रारूप पर जो चर्चा अभी तक हुई है, उसमें श्रमिकों और श्रमिक संगठनों की कई गंभीर शंकाएं सामने आई हैं। हकीकत यह रही है कि जब मजदूर समर्थक कानून मौजूद होते हैं तब भी शक्ति संतुलन देखते हुए मजदूरों के लिए न्याय प्राप्त करना प्राय: बहुत कठिन होता है। तिस पर यदि कानूनों को ही कमजोर कर दिया जाए तो मजदूरों के लिए न्याय प्राप्त करना और कठिन हो जाएगा। एक अन्य समस्या यह खड़ी है कि अनेक श्रम कानूनों का दायरा पहले से कम कर दिया गया है, जिससे बहुत कम मजदूर उसके दायरे में आते हैं।
प्रस्तावित कोड जिस दिशा में जा रहे हैं, उसी तरह के कुछ संशोधन भी श्रम कानूनों में होने लगे हैं। बहुत संघर्ष के बाद संगठित क्षेत्र के कुछ मजदूरों जैसे कि निर्माण मजदूरों व रेहड़ी-पटरी वालों के लिए जो काूनन बनाए गए थे, उनका क्रियान्वयन भी अभी तक ठीक से नहीं हो सका है। इन कानूनों में जो संभावनाएं निहित थीं, उसका बहुत कम लाभ ही इन मेहनतकशों को मिल सका है। इतना ही नहीं, निर्माण मजदूरों के कानून के लिए कुछ नई अनिश्चित स्थितियां भी उत्पन्न हो गई हैं। इसके अतिरिक्त विमुद्रीकरण जैसे फैसलों से भी श्रमिक वर्ग को बहुत क्षति उठानी पड़ी है। इन सब स्थितियों को देखते हुए यह बहुत जरूरी है कि चुनाव बाद जिसकी भी सरकार बने वह श्रमिकों की समस्याओं व सवालों को सुलझाने पर सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाए। जो भी प्रस्तावित श्रम सुधार है, वे वास्तव में मजदूरों की बेहतरी के लिए होने चाहिए। शक्ति संतुलन तो वैसे ही मजदूरों के विरुद्ध है, कम-से-कम कानून का सहारा मजदूरों को मिलना चाहिए।
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