बतंगड़ बेतुक : जनता ने पप्पू पास कर दिया

Last Updated 16 Dec 2018 07:04:19 AM IST

या अली, हे बजरंगबली ये क्या हो गया। जिस पूत के पांव कल तक पालने में दिख रहे थे, वह यकायक जवान हो गया।


बतंगड़ बेतुक : जनता ने पप्पू पास कर दिया

जिसके कद को बेकद माना जा रहा था, वह चुनाव परिणाम आते-न-आते कद्दावर पहलवान बन गया। जिसके ठुमकने पर तालियां बज रही थीं, वह छलांग मारकर पहाड़ चढ़ गया। जो उखड़ा-उखड़ा लग रहा था, वह जमकर जम गया। वाह री! देश की जनता तूने कमाल कर दिया। पप्पू को गोद में उठाकर पास कर दिया।
जनता जर्नादन है, जनता महान है, जनता वंदनीय है, जनता भगवान है। जनता किसी को भी उजाड़ सकती है, किसी को भी मिटा सकती है, किसी से सिंहासन छीन सकती है, और किसी को सिंहासन पर बिठा सकती है। लोकतंत्र जनता का है, जनता लोकतंत्र की है। जिसका जनता विरोध करे उसके बीच हाहाकार, जिसका समर्थन करे उसके बीच जय-जयकार। जो हारे वह मारा जाए और जो जीते वह जनता पर वारा जाए।
जीता हुआ आसामी तुमुलनाद करता है। जनता ने उसकी बात सुनी, जनता उसके साथ आई, जनता ने उसे समर्थन दिया, जनता ने उसे चुना और उसे विजेता बना दिया। जीते हुए की जनता-विरुदावली से लगता है जैसे जनता कोई समरस, समरंगी जन-गंगा है, जो इसके पक्ष में बही तो इसे पार लगा गई, जिसके विरुद्ध बही तो उसे बहा ले गई। यह वह जन-गंगा है, न जिसके प्रवाह पर संदेह किया जा सकता है, और न जिसकी पवित्रता पर उंगली उठाई जा सकती है।

सच्चाई यह है कि न जनता समरस है, न समरंगी। जनता बहुगुणिया है, बहुरूपिया, है, बहुरंगी है। जनता हिंदू है, जनता मुसलमान है। जनता रामभक्त है, जनता अलीभक्त है, और जनता भक्तिविहीन निर्भक्त है। जनता सवर्ण है, जनता दलित है, जनता आदिवासी है। जनता अगड़ी है, जनता पिछड़ी है। जनता किसान है, जनता मजदूर है, जनता व्यापारी है, नौकरीपेशा है। जनता बारोजगार है, जनता बेरोजगार है। जनता पुरुष है, जनता महिला है। जनता गरीबी की रेखा से बहुत नीचे है, जनता अमीरी की रेखा से बहुत ऊपर है। अलग-अलग जनताओं की अलग-अलग पहचानें हैं। उनके अलग-अलग स्वार्थ हैं, अलग-अलग संकट हैं, अलग-अलग समस्याएं हैं। अलग-अलग लगाव-दुराव हैं, अलग-अलग जनता के अलग-अलग नेता हैं, जो अपनी-अपनी जनता की पैरोकारी करते हैं। उनके असली-नकली दुख-ददरे को अलग-अलग मंचों पर उठाते हैं। कभी उन्हें उकसाते हैं, कभी भड़काते हैं। उनके जायज-नाजायज अधिकारों की दुहाई देते हैं, और इनके लिए जीने-मरने की कसमें खाते हैं। उनमें आक्रोश जगाते हैं, उन्हें गोलबंद करते हैं, उनकी ताकत बढ़ाते हैं, और अपनी नेतागीरि को सौदाकारी बनाते हैं।
ये बहुरंगी जनताएं अपने-अपने रंग के अनुसार अपने नेता, अपनी पार्टी, अपनी जाति और अपने धर्म और अपने स्वार्थ के साथ गोलबंद रहती हैं। जनता की ये गोलबंदियां आंखें मूंदकर अपने-अपने नेताओं के प्रति वफादार रहती हैं। नेता इन्हें  जिधर हांक देते हैं, उधर हंक जाती हैं। इधर से हटाएं तो हट जाती हैं, उधर जोड़ें तो जुड़ जाती हैं। इनमें से जिस भी गोलबंदी की सरकार हो, वह कितना भी बुरा करे मगर अच्छी है क्योंकि अपनी है। दूसरी गोलबंदी की सरकार हो तो कितना भी अच्छा करे मगर बुरी है क्योंकि पराई है। यह जनता अलग-अलग दलों और नेताओं की स्थायी पूंजी होती है जिसे वे जब चाहें, जहां चाहें  घुमा सकते हैं, भुना सकते हैं। यह जीत में भी साथ रहती है और हार में भी। इनसे परे एक जनता ऐसी होती है, जो खास तौर पर चुनावी मौसम में उगती है। यह न तो पूरी तरह अली वाली होती है, और न पूरी तरह बली बजरंग वाली। न ज्यादा कांग्रेसी होती है, न ज्यादा भाजपाई। न सवर्णतावादी होती है, न अवर्णतावादी। न अतिवादी होती है, न उम्मादी। यह वादों और छलावों में फर्क करती है, कथनी-करनी का अंतर देखती है, नेता और पार्टी के चाल-चरित्र की पड़ताल करती है। बयानों और लफ्फाजियों को चिह्नित करती है। गालियों, जुमलों, व्यंग्यों और वक्रोक्तियों के पीछे छिपे विद्रुप की पहचान करती है। फिर अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार इसके या उसके पक्ष में झुक जाती है। खासी अल्पसंख्यक होने के बावजूद चुनावी उल्ट-फेर में खासी भूमिका निभाती है। दरअसल, यह चिढ़ी हुई जनता होती है, जिसकी जनताचिढ़ चुनावों के सिर चढ़कर बोलती है।
इसके अलावा, एक मजेदार चिढ़जनता और होती है। यह पार्टी से जुड़ी होती है, मगर पार्टी की नहीं होती। पार्टी की विरोधी होती है, मगर विरोध में नहीं होती। पक्ष-विपक्ष खुद होती है। कोई एक दाना डाल दे तो पक्ष, दाना छीन ले तो विपक्ष। सरकार कर्ज उतार दे तो पक्ष, नहीं तो विपक्ष। नौकरी दे दे तो पक्ष, नहीं तो विपक्ष। थाने-कचहरी में काम निकलवा दे तो पक्ष, नहीं तो विपक्ष। सरकार इसकी वफादार तो सरकार की वफादार। इसकी माने तो सरकार, नहीं तो काहे की सरकार। इसकी सुनती रहे तो जय-जयकार, नहीं तो हाहाकार। यह चिढ़जनता बहुत कम होती है। एक या दो प्रतिशत हो सकती है, पांच या छह प्रतिशत हो सकती है। लेकिन चुनावी समीकरणों में पलीता यही लगाती है। यही पहलवान को पप्पू बनाती है, और पप्पू को पहलवान। मजेदार बात यह कि यह चिढ़जनता मुट्ठीभर होते हुए भी समग्र जनता का श्रेय ले जाती है। बहरहाल, इस चिढ़जता ने इस चुनाव में अपना काम कर दिया है। अगले चुनाव में यह किसे पप्पू बनाएगी यह अली जाने या बजरंगबली।

विभांशु दिव्याल


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