खाप : बर्बरता पर लगाम

Last Updated 20 Jan 2018 06:40:47 AM IST

चंद दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने अंतरजातीय विवाह करने वाले वयस्क पुरुष और महिला पर खाप पंचायतों या संगठनों के किसी भी प्रकार के हमले को गैरकानूनी बता कर एक सभ्य समाज की कल्पना को आधार प्रदान किया है.


खाप : बर्बरता पर लगाम

शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कहा है कि यदि दो वयस्क स्त्री-पुरुष विवाह करते हैं, तो कोई खाप पंचायत, व्यक्ति या समाज उस पर सवाल नहीं उठा सकते. मालूम हो कि खाप पंचायतें एक लंबे समय से प्रेम विवाह या अंतरजातीय विवाह करने वाले युवक-युवतियों का अनेक तरह से उत्पीड़न करती आ रही हैं. कभी उनके परिवार का हुक्का-पानी बंद कर देती हैं, तो कभी भारी आर्थिक दंड लगा देती हैं. कई बार तो खाप पंचायतें अपने मन मुताबिक विवाह करने वाले युवक-युवतियों की हत्या करने का फरमान सुनाकर उनका कत्ल भी कर देती हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का उक्त फैसला पूरी तरह सामयिक और न्यायसंगत परिलक्षित होता है.
वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है, जब शीर्ष अदालत ने खाप पंचायतों के फैसले को गैरकानूनी बताया है. इससे पहले भी कई बार सुप्रीम कोर्ट समेत देश की कई अदालतों ने खाप पंचायत के ऐसे फैसलों को गैरकानूनी बताया है और सरकार को भी निर्देश दिया है कि वह प्रेम विवाह और अंतरजातीय विवाह करने वाले युवक-युवतियों को सुरक्षा प्रदान करे. इसके बावजूद खाप पंचायतों की गैरकानूनी हरकतें बदस्तूर जारी हैं. ऐसे में यहां स्वाभाविक रूप से दो सवाल पैदा होते हैं. पहला सवाल; यह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और कानून के लंबे हाथ होने के बावजूद ऐसे फतवों पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है?  दूसरा सवाल, ऐसे फतवे देने वालों को यह क्यों नहीं महसूस होता कि वे कोई गलत काम कर रहे हैं?

हमने विगत में देखा है कि खाप पंचायतों को अपनी मर्जी से शादी करने वाले अपने ही बेटे-बेटियों की हत्या तक के फरमान जारी करने में भी कोई गुरेज नहीं रहा है. आखिर उनके मन में ऐसे कृत्यों (कु) से ग्लानि क्यों नहीं पैदा होती? दरअसल, खाप पंचायतों का वजूद और उनके मनुष्यता विरोधी कार्यकलापों को अपनी जाति के लोगों का व्यापक समर्थन प्राप्त रहता है और कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस कार्य को व्यापक सामाजिक समर्थन प्राप्त रहता है, वह मनुष्यता विरोधी और गैरकानूनी होते हुए भी जारी रहता है. सामाजिक समर्थन कानून को पंगु बना देता है. खाप पंचायतों के मामले में भी यही सच है. जहां तक खाप पंचायत के संचालकों के मन में अपने किए के लिए किसी पश्चाताप या ग्लानि नहीं होने की बात है, तो इसका कारण भी मूल रूप से उनके कार्यों को मिलने वाला व्यापक सामाजिक समर्थन ही है. इस तथ्य को हम दंगों के उदाहरण से समझ सकते हैं. हम सभी जानते हैं कि दंगाइयों के मन में अकारण हत्या करने के बावजूद कोई ग्लानि नहीं होती. इसका कारण यह है कि उनका अपना-अपना समाज उनके कुकृत्यों को समर्थन देकर वाजिब ठहरा देता है. ऐसे में उनके मन में कहां से और कैसे ग्लानि बोध पैदा हो सकता है! पुलिस और प्रशासन के लोग भी अपने मन में इन फतवों को नजरअंदाज करने का भाव रखते हैं. दरअसल, वे भी उसी समाज के हिस्सा होते हैं, जहां दलितों और शूद्रों को सवर्णो के मुकाबले कमतर समझने की मानसिकता हावी है.
जैसा समाज होता है, वैसा ही उसका नेतृत्व और शासन व्यवस्था भी होते हैं. भारतीय समाज जात-पांत, संप्रदाय, धर्म और लिंग जैसे भेदभावपूर्ण आचरण से युक्त समाज है. यही कारण है कि पुलिस-प्रशासन का संचालन भी भेदभावपूर्ण होता है. मर्दवादी यौन-शुचिता का दुराग्रह और जातीय श्रेष्ठता की उनकी अहमक समझदारी उनके वैचारिक और व्यावहारिक फलक का विस्तार नहीं होने देते. यही कारण है कि कन्या-भ्रूण हत्या जैसे अपराध को लेकर उनके मन में कोई हलचल नहीं मचती, महिलाओं का शोषण और उनके साथ होने वाले बलात्कार उन्हें व्यथित, आक्रोशित नहीं करते, लेकिन यदि किसी लड़की ने अपनी इच्छा से अपने जीवन साथी का चुनाव कर लिया तो उनके ऊपर बिजली टूट पड़ती है. दिलचस्प है कि खाप पंचायत के संचालकों को अपने बेटे-बेटियों के पढ़ाई करने या नौकरी कर घर में पैसा लाने से कोई गुरेज नहीं है, लेकिन जैसे ही वे अपनी जिंदगी से जुड़े फैसले लेने के लिए आगे बढ़ते हैं, तो उनकी भृकुटि तन जाती हैं और यदि स्थिति हाथ से निकलने की आशंका हो, तो जातीय श्रेष्ठता के वे कैदी अपनी ही संतान को मौत के घाट उतारने से भी परहेज नहीं करते. यह महज संयोग नहीं हो सकता कि देश के जिन हिस्सों में खाप पंचायत का वजूद है, उन्हीं इलाकों में लड़के-लड़कियों का अनुपात भी सबसे ज्यादा गड़बड़ है यानी लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या काफी कम हैं.
इसी तरह, इन्हीं इलाकों में दलितों पर सबसे ज्यादा अत्याचार भी होते हैं. खाप पंचायतों की नजर में हिंसा और हत्या अपराध नहीं होते, बल्कि अपराध होता है प्यार करना, अपने मनमाफिक जीवन साथी का चुनाव करना. दरअसल, यह हमारे लोकतंत्र की विफलता है और इस विफलता का कारण यह है कि देश की शासन व्यवस्था के लिए तो हमने लोकतांत्रिक संस्थाओं और सिद्धांतों का वरण किया, किंतु सामाजिक स्तर पर इसके विस्तार के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया.
इसका परिणाम यह हुआ कि कानून और संविधान के सामने तो सभी को समान मान लिया गया, लेकिन सामाजिक स्तर पर भेदभावपूर्ण व्यवहार पूर्ववत जारी रहा. शासन के परिचालन और नीतियों के निर्माण में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का खयाल रखा गया किंतु समाज को अपने हिसाब से चलते रहने के लिए छोड़ दिया गया. परिणामस्वरूप समाज में लोकतांत्रिक चेतना की पैठ नहीं हो सकी और उसकी जातीय, धार्मिंक, सांप्रदायिक और पुरुष वर्चस्व की चेतना ज्यों की त्यों रूढ़ बनी रही. मीडिया के विस्फोट ने लोकतंत्र के लिए जगह बनाई है. आज के युवा-युवती मोबाइल और इंटरनेट के जरिए एक-दूसरे के संपर्क में आ रहे हैं, जिसे रोकना अब अभिभावक के लिए संभव नहीं रह गया है. प्रेम-विवाह का यह प्रचलन जातीय जकड़न को भी कमजोर करेगा, जो लोकतंत्र की सफलता के लिए बेहद जरूरी है.

कु. नरेन्द्र सिंह


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