परत-दर-परत : क्या यह सर्वोच्च न्यायालय की विफलता है?

Last Updated 22 Oct 2017 05:07:44 AM IST

निश्चय ही पहली बार नहीं है जब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की उसकी नाक के नीचे धज्जियां उड़ाई गई हैं.


परत-दर-परत : क्या यह सर्वोच्च न्यायालय की विफलता है?

दिल्ली एनसीआर में साधारण नागरिकों ने भी दीपावली के दिन पटाखे बजा कर अदालत के आदेश का सम्मान नहीं किया, लेकिन यह दूसरी बात है. चिंताजनक बात यह है कि पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध के निर्णय के अगले ही दिन कुछ हिंदूवादियों ने अदालत के सामने पटाखे बजा कर उसका सार्वजनिक उपहास किया.
जब यह याद आता है कि ऐसे ही लोगों के एक भारी समूह ने 1992 में बाबरी मस्जिद को मिस्मार कर दिया था, तब मामला गंभीर हो जाता है. इसलिए और भी कि पिछले कुछ वर्षो में गाय बचाने के नाम पर अनेक लोगों की हत्या कर दी गई है, अंधास्था और अंधश्रद्धा से संघर्ष करने वालों की जान ले ली गई और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में लिखने वालों को सताया और गोली मारी गई. ये माओवादी संगठनों की तरह के लोग नहीं हैं, जिनका विश्वास है कि हिंसा के प्रयोग बिना संस्थागत अन्यायों का प्रतिकार नहीं किया जा सकता. मध्य वर्ग के सफेदपोश लोग हैं, शिक्षित हैं, और अपने को सांस्कृतिक दृष्टि से दूसरों की तुलना में ज्यादा विकसित हैं. सामान्यत: कानून के राज का पालन करते हैं, लेकिन यह जरूर है कि जैसे ही एक रु ग्ण किस्म का हिंदूवाद इन पर हावी हो जाता है, इनकी चेतना पर उन्माद छा जाता है, और कमजोर तथा निरीह लोगों पर सामूहिक हिंसा करने में भी इन्हें संकोच नहीं होता.
लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली शर्त है, कानून का राज. कानून के राज का सबसे बड़ा लक्षण है कि अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, असहमति या भिन्न मत का कितना सम्मान किया जाता है, और अभिव्यक्ति की आजादी कितनी है. जब सब कुछ ठीक-ठाक चलता है, तब सभी लोग कानून का पालन करते हैं. समस्या तब पैदा होती है, जब विचारों और भावनाओं की टकराहट होती है. जब समाज में असहमति या विमत के लिए गुंजाइश खत्म होने लगे, अपनी बात हिंसा के जरिए मनवाने की प्रवृत्ति बढ़ने लगे, तब मान लेना चाहिए कि सभ्यता की नींव हिलने लगी है. आज शायद हम ऐसे ही मोड़ पर खड़े हैं, जहां हिंदू सभ्यता, भारतीय सभ्यता और आधुनिक सभ्यता, सभी की श्रेष्ठतम उपलब्धियां खतरे में हैं.

अदालत को पटाखों की बिक्री पर रोक लगानी चाहिए था या नहीं, इस पर एक राय नहीं है. कुछ के मन में सवाल पैदा हुआ है कि क्या यह भी न्यायालय तय करेगा कि त्योहार किस तरह मनाए जाएंगे? हम सभी बचपन से ही दिवाली मनाने का एक ही तरीका जानते हैं दीये जलाना, लक्ष्मी-गणोश की पूजा करना और आतिशबाजी करना. दिवाली किसी और तरीके से भी मनाई जा सकती है, यह हम नहीं सोचते. लेकिन बहुत-सी अच्छी चीजें हैं, जो अति की शिकार हो जाने पर बुरी हो जाती हैं. जैसे प्रेम करना अच्छी बात है, पर प्रेम में किसी के पीछे पड़ जाना असभ्यता. आतिशबाजी किसे अच्छी नहीं लगती! लेकिन इसका इस्तेमाल इतना बढ़ जाए कि धुंए और प्रदूषण के कारण सांस लेना मुश्किल हो जाए, तब सोचना ही पड़ता है कि जीवन त्योहार के लिए है, या जीवन त्योहार के लिए.
संकट के ऐसे बिंदु पर आने के बाद कोई भी सभ्य और संवेदनशील समाज अपने को बदलने का प्रयत्न करेगा. लेकिन जब यह नहीं हो पाता, तब किसी न किसी अथॉरिटी को सामने आना ही पड़ता है. पटाखों के मामले में सरकार और न्यायालय यही दो प्राधिकार हैं, जो सक्षम हस्तक्षेप कर सकते हैं. चूंकि सरकार ने इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, इसलिए न्यायालय को सक्रिय होना पड़ा. न्यायालय कोई बाहरी या आरोपित चीज नहीं है, वह हमारे समाज का अंग है.
कहना उचित नहीं होगा कि न्यायालय का निर्णय पूरी तरह से विफल रहा. दो बातें निश्चित रूप से हुई. दिल्ली एनसीआर में पटाखों की बिक्री होते हुए कहीं नहीं देखा गया और पिछले वर्षो की तुलना में दस प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने पटाखे नहीं छोड़े. एक सामाजिक-सांस्कृतिक मामले में न्यायिक हस्तक्षेप की इतनी सफलता मामूली चीज नहीं है. नहीं भूलना चाहिए कि न्यायालय ने पटाखों के इस्तेमाल पर नहीं, सिर्फ  उनकी बिक्री पर प्रतिबंध लगाया था, जिसका आम जनता द्वारा पालन किया गया. जिन हिंदूवादी संगठनों को भारत की सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने की बहुत चिंता थी, उनमें भी इतना साहस नहीं हुआ कि पटाखे बेचने के लिए दुकानें खोल कर बैठ जाएं.
प्रदूषण-विरोध और त्योहारों को साफ-सुथरा देखना चाहने वाले सभी लोग यही कामना करेंगे कि इस साल दीपावली पर दिल्ली एनसीआर में जो प्रयोग किया गया है, उसे भविष्य में और आगे बढ़ाया जाएगा. ग्लोबल वार्मिंंग के मुद्दे से सारी दुनिया जूझ रही है. देश की सभी सरकारों का कर्तव्य है कि प्रदूषण कम करने के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयत्न करें. समाज को भी सोचना चाहिए कि किन-किन मामलों में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है. समाज के प्रतिनिधि के रूप में यह जिम्मेदारी सरकार की भी है. समाज के पास सिर्फ  नैतिक चेतना है. सरकार के पास कानून, पुलिस, अदालत और जेल भी हैं.

राजकिशोर


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