नजरिया : मौसमी नहीं स्थायी हल निकालें

Last Updated 20 Aug 2017 04:07:07 AM IST

बिहार के पश्चिम चम्पारण में बाढ़ की स्थिति बदतर है. हमारा गांव बुरी तरह से प्रभावित है.


नजरिया : मौसमी नहीं स्थायी हल निकालें

लोगों के लिए खाने-पीने की चीजें कम पड़ती जा रही हैं-अभिनेता मनोज वाजपेयी का यह ट्वीट है जिन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अपने गांव के लोगों के लिए मदद भेजने की अपील की है. इस इकलौते ट्वीट से बिहार में बाढ़ के हालात को समझा जा सकता है. नीतीश कुमार लगातार बाढ़ पीड़ित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण कर रहे हैं. खाद्य सामग्री के पैकेट गिराए जा रहे हैं. लेकिन कहने की जरूरत नहीं कि ये नाकाफी है. अब तक बिहार में बाढ़ के कारण मरने वालों का आंकड़ा 150 से अधिक हो गया है.
इसी तरह, उत्तर प्रदेश में भी बाढ़ ने कहर बरपाया है. यहां बाढ़ से मरने वालों की संख्या 40 का आंकड़ा पार गई है. बाढ़ से राज्य में 14 लाख से ज्यादा लोग पीड़ित हुए हैं. बहराइच, गोंडा, बस्ती, महाराजगंज, बलरामपुर, बिजनौर, बारबंकी समेत राज्य के 22 जिले बुरी तरह तबाह हैं. घाघरा ने यहां सबसे ज्यादा तबाही मचाई है. गंभीर हालात के बीच सीएम योगी आदित्यनाथ ने बाढ़ग्रस्त जिलों का दौरा कर अधिकारियों को राहत कार्य तेज करने के निर्देश दिए हैं. इसी तरह, असम में भी बाढ़ की विभीषिका जारी है. यहां मृतकों की संख्या 133 तक पहुंच गई है.
लेकिन बाढ़ केवल भारत में ही नहीं है. बाढ़ का संकट पूरे दक्षिण एशिया को अपनी चपेट में ले चुका है. रेडक्रॉस सोसाइटी ने 18 अगस्त को जो रिपोर्ट जारी की है, उसमें कहा गया है कि भारत, नेपाल और बांग्लादेश में 1.60 करोड़ से अधिक लोग बाढ़ से पीड़ित हुए हैं. सिर्फ  भारत में 1.10 करोड़ से ज्यादा लोग बाढ़ से पीड़ित हैं. रिपोर्ट के मुताबिक तीनों देशों में बाढ़ से अब तक 400 लोगों की मौत हो चुकी है. नेपाल और बांग्लादेश का एक तिहाई हिस्सा पानी में डूबा हुआ है, जबकि बिहार के 38 जिलों में 18 जिले पानी में डूबे हुए हैं.

पुराने दिनों की बाढ़ और अब की बाढ़ में बड़ा विनाशकारी फर्क जो आया है, वह यह है कि पहले बाढ़ का पानी जमीन को उर्वर बनाकर जाया करता था, बाढ़ उपज के लिए लाभकारी थी, लोगों का पेट भरती थी, लोग इस बाढ़ का इंतज़ार करते थे. जबकि, आज बाढ़ के बाद मिट्टी खो जाती है, बालू ही बालू दिखता है. जीने का सहारा यानी खेती चौपट हो जाती है. बाढ़ के बाद जिन्दा बचे फटेहाल लोग अपनी इस स्थिति पर माथा पीट रहे होते हैं. बाढ़ का यह विनाशकारी स्वभाव कैसे बना? दरअसल, इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं. सिंचाई और पनबिजली के नाम पर तटबंधों की हमने श्रृंखला खड़ी कर दी है.  यह भी लाभकारी रहता, लेकिन नदियों को गंदा करने की हमारी प्रवृत्ति ने इसे छिछला बना दिया है. नतीजा यह है कि जैसे ही तटबंध टूटते हैं तो पानी का वेग इतना ज्यादा होता है कि यह ऊर्जा जिसका हम रचनात्मक इस्तेमाल करने वाले थे, विनाशात्मक रूप ले लेती है. इस जलावेग से उर्वरा मिट्टी की जगह बालू का निर्माण होता है, जो बहते पानी के साथ विनाश लेकर आगे बढ़ता जाता है.
एक अध्ययन के मुताबिक पूर्वी नेपाल की सप्तकोशी बहुद्देश्यीय परियोजना से बिहार में बाढ़ की समस्या को सुलझाया जा सकता है. लेकिन राजनीतिक कारणों से इस पर काम रु का हुआ है. बिहार के भीतर जो तटबंध बने हैं, उनमें व्यापक भ्रष्टाचार भी विनाश लेकर आया है. बाढ़ पीड़ित कोई जिला ऐसा नहीं है, जहां तटबंध न टूटे हों, पुल-पुलिया न टूटे हों. दरअसल, तटबंध टूटने से उन इलाकों में बाढ़ आ जाती है जहां के लोग तटबंध के कारण खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे होते हैं. इससे नुकसान ज्यादा हुआ है. तमाम दावों के उलट कहा जा सकता है कि बाढ़ और उससे निपटने के लिए बनी योजनाओं में वर्षो से चली आ रही लूट-खसोट सिलसिला आज भी जारी है. हरेक साल इस मद में नये बजटीय प्रावधान होते हैं, जितनी राशि इसके लिए रखे जाते हैं उसका बहुलांश समर्थवानों की जेवों में चले जाते हैं. इसलिए बाढ़-सूखा राजनीतिक वर्ग के एक हिस्से के लिए मानों बहार आने के मौसम हैं. दूसरी बात यह है कि बाढ़ ने अपना स्वरूप विनाशकारी बनाया है. लेकिन उस हिसाब से हमने बचाव की नई रणनीति नहीं तैयार की है. सरकारी सोच आज भी बाढ़ को आपदा मानकर चल रही है. इस सोच को तत्काल बदलने की जरूरत है. यह आपदा अगर है भी, तो मानवनिर्मिंत है. बाढ़ का यह स्वरूप मानवीय लापरवाही के कारण है. अगर हमारी लापरवाही ने इस समस्या को जन्म दिया है, तो हमारी होशियारी ही इस समस्या से हमें उबारेगी. मगर, सबसे पहले हमें इसे स्वीकार करना होगा.
एक बाढ़ जो हर साल आती है, जिसका स्वरूप हर साल विनाशकारी होता चला जा रहा है, लेकिन हम बस बाढ़ के प्रकोप से बचने के लिए राहत उपायों तक सिमट गए हैं. बाढ़ को रोकने का इंतजाम नहीं कर रहे हैं. इसे तीन महीने का संकट या अभिशाप मानते हुए जनता को सांत्वना देने में लगे हैं. यह प्रवृत्ति बाढ़ से अधिक विनाशकारी है. बाढ़ के दौरान लोग पानी में फंसे होते हैं, लेकिन फिर भी पीने के पानी के लिए तरस रहे होते हैं. नतीजा यह होता है कि आखिरकार वहीं गंदला पानी पीते हैं और बाढ़ का पानी घटते-घटते पूरी आबादी संक्रामक बीमारी की चपेट में आ जाती है, इस बीमारी के कारणों में पेयजल के अलावा भी बहुतेरे कारण हैं. लेकिन एक बार जब संक्रामक रोग फैल जाता है, तो इस संकट से निबटने के लिए भी हमारे पास चिकित्सा सुविधा कम पड़ जाती है. कम पड़ना तो दूर, लोगों तक चिकित्सा पहुंच भी नहीं पाती है. ऐसे में बाढ़ के कारण प्रत्यक्ष तौर पर हुई मौत या लापता लोगों की संख्या ही अंतिम नहीं होती. आप धन की हानि का अंदाजा तो लगा लेते हैं. लेकिन बाढ़ के बाद बीमारियों के कारण, असुविधाओं और मजबूरी की वजह से जो मौत होती हैं, उसको हम बाढ़ की विभीषिका में शामिल नहीं करते. बाढ़ के विनाश से बहुसंख्यक आबादी को बचाने के लिए दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों तरह के उपायों की जरूरत है. दीर्घकालिक उपाय में बाढ़ को रोकने का इंतजाम करने के साथ-साथ बाढ़ के विनाशकारी स्वभाव को नियंत्रित करने के तरीके पर काम करने की जरूरत है. इसके लिए बाढ़ पीड़ित पड़ोसी देशों के साथ मिलकर साझा नीति तैयार की जानी चाहिए. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मदद की जरूरत हो, तो उसकी भी कोशिश होनी चाहिए. यह काम अकेले राज्य सरकार के वश का नहीं है. भूमिका केंद्र को निभानी होगी.
अल्पकालिक उपायों में बाढ़ के दौरान और बाढ़ के बाद दोनों स्तरों पर काम किया जाना चाहिए. बाढ़ के दौरान राहत कार्यों को मजबूत करना, राहत शिविरों को सुविधायुक्त बनाना, लोगों की जान बचाना शामिल है जबकि बाढ़ के बाद चिकित्सा और पुनर्वास के स्तर पर व्यापक तौर पर काम किए जाने की जरूरत है ताकि लोग जल्द से जल्द जीवन की मुख्य धारा में आ पाएं. होता यह है कि इस साल की बाढ़ की परेशानी से लोग उबर भी नहीं पाते हैं कि अगले साल की बाढ़ आ जाती है. इस तरह से बाढ़ ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है. सवाल यह है कि हर साल की तरह बाढ़ पर तमाम चिंतन कहीं मौसमी बनकर न रह जाएं.

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीईओ व एडिटर इन चीफ


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