टीचर्स-ट्रेनिंग : देर से पर दुरुस्त कदम

Last Updated 27 Jul 2017 06:45:13 AM IST

यह एक बड़ा फैसला है कि केंद्र सरकार एवं लोक सभा ने देश के शिक्षकों को न्यूनतम योग्यता हासिल करने का अंतिम मौका दिया है.


टीचर्स-ट्रेनिंग : देर से पर दुरुस्त कदम

लोक सभा ने चर्चा के बाद नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिकार संशोधन विधेयक 2017 को पारित कर दिया है. 2010 में जब शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुआ था तो पांच वर्षो, यानी 31 मार्च 2015 तक के लिए, अप्रशिक्षित अध्यापक रखने की छूट दी गई थी. स्वतंत्र भारत को जब मानव-संसाधन को योग्य एवं कुशल बनाना था तो देश के बुद्धिजीवियों ने कई प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता पर बल दिया. भावी पीढ़ी के प्रशिक्षण के क्रम में शिक्षक प्रशिक्षण की आवश्यकता अधिक तीव्र थी. कई प्रकार के शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू हुए. शिक्षा के अधिकार कानून के लागू होने के बाद अध्यापकों की शिक्षा की गुणवत्ता से काफी समझौता किया गया है. इस अवधि में न केवल अप्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त हुए, बल्कि अध्यापक-शिक्षा अपना स्तर भी खोती चली गई.

इस वर्ष में अध्यापकों की शिक्षा से संबंधित सरकार की दूसरी चिंता मुखर हुई है. पहले राष्ट्र-स्तरीय प्रवेश परीक्षा की और अब प्रशिक्षण की अनिवार्यता की. क्या देश यह नहीं जानना चाहता कि आखिर अध्यापक शिक्षा की बीच-बीच में अनदेखी क्यों होती है और क्यों इसकी अनिवार्यता से स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद भी समझौता होता है? यह गंभीर विषय है, जो देश की मानव संपदा के विकास से संबंधित है, किसी फैक्टरी या भवन से संबंधित नहीं. डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, नौकरशाह, सीए, सीएस, मैनेजर की तुलना में यदि देश को अधिक शिक्षक की जरूरत है तो क्या इसका यह मतलब है कि हम इसकी गुणवत्ता एवं कुशलता से लगातार समझौता करते रहें? देश को इस प्रश्न पर संसद के माध्यम से गंभीरता से विचार करने की जरूरत है क्योंकि नई शिक्षा नीति (1986) ने कहा है कि कोई भी राष्ट्र अपने शिक्षक के स्तर से ऊपर नहीं जा सकता.

यह सोचना होगा कि आखिर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) ने किस परिस्थिति में यह कहा कि अधिक मात्रा में अर्धशिक्षकों (पारा टीचर) की नियुक्ति शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है. कोठारी आयोग ने तो यहां तक कह डाला था कि शिक्षा को प्रभावित करने वाले सभी तत्वों में शिक्षक की गुणवत्ता, चरित्र एवं कार्य-कुशलता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है. यद्यपि सरकार का यह कदम कि 31 मार्च 2019 तक सभी कार्यरत शिक्षकों को अपनी नौकरी में बने रहने के लिए अनिवार्य न्यूनतम योग्यता हासिल करनी होगी, एक स्वागत योग्य कदम है, किंतु यह निर्णय कई सारे प्रश्नों को जन्म भी देता है. उनकी चिंता कि साढ़े पांच लाख निजी स्कूलों के और ढाई लाख सरकारी स्कूलों में शिक्षक जरूरी न्यूनतम योग्यता नहीं रखते स्वाभाविक है, परंतु इसका सही समाधान भी जरूरी है. जल्दी-जल्दी में सिर्फ कहने के लिए उपाधि हासिल कर लेना अभ्यर्थियों को योग्य शिक्षक नहीं बना सकता. कार्यरत शिक्षकों को उचित शिक्षा दिलाने में संबंधित सरकार की उचित एवं प्रभावी भूमिका आवश्यक है.

शिक्षक शिक्षित कैसे होंगे? सरकार की ओर से उनके प्रशिक्षण की कैसी रूपरेखा तैयार होगी? प्रशिक्षण के फलस्वरूप क्या वे ज्यादा योग्य और कुशल हो पाएंगे? हटाए जाने से पूर्व क्या उनकी सेवा एवं कार्य का मूल्यांकन होगा? क्या अप्रशिक्षित रह गए अध्यापक को हटाने से शिक्षा का अधिकार कानून प्रभावित तो नहीं होगा? निजी माध्यमिक स्तरीय विद्यालयों में योग्य शिक्षकों की एकाएक कमी तो नहीं होगी? जैसे सवालों के उचित जवाब की तलाश सरकार को इस निर्णय की राज्य सभा से स्वीकृति के पूर्व कर लेनी चाहिए. सरकार को इस संदर्भ में ज्यादा जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसे निर्णय मौसम के मिजाज की तरह नहीं बदला करते. अध्यापक-शिक्षा में वैसे भी जल्दी-जल्दी एवं कुछ हद तक प्रभावहीन प्रयोग भी होते रहे हैं. यह तय है कि अध्यापक-शिक्षा की गुणवत्ता का सीधा संबंध प्रशिक्षु द्वारा प्राप्त विद्यालयी एवं उच्च शिक्षा से है, लिहाजा उन पर भी अपेक्षित ध्यान देने की जरूरत है. शिक्षा एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और शिक्षकों की शिक्षा भी इसका अपवाद नहीं हो सकती. सेवाकाल से पूर्व प्राप्त शिक्षा या प्रशिक्षण प्रारंभिक प्रशिक्षण माना जाता है. और होना तो यह चाहिए कि बिना प्रारंभिक प्रशिक्षण के किसी की भी नियुक्ति अध्यापक के रूप में नहीं होनी चाहिए. दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रसंग यह कि शिक्षकों को सेवा-काल में समय-समय पर शिक्षित किया जाना चाहिए. ज्ञान के विस्तार ने और शिक्षा-तकनीकी के विकास ने इस कार्य को और भी आवश्यक बना दिया है.

प्रारंभिक प्रशिक्षण से शिक्षकों को श्यामपट्ट पर लिखने, प्रश्न बनाने, प्रश्न पूछने, वर्ग नियंत्रित करने, अनुशासन बनाए रखने, आवश्यक यंत्रों एवं सहायक सामग्री को शिक्षण में उपयोग करने और विभिन्न प्रकार के कौशल को आत्मसात करने की सीख दी जानी चाहिए. यदि विषय ज्ञान के अतिरिक्त किसी अध्यापक को इन क्रियाओं एवं कौशलों का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है तो उन्हें शिक्षक नहीं होना चाहिए. यहां यह स्पष्ट है कि किसी भी प्रशिक्षण उपाधि की उपादेयता उपाधि में नहीं संबंधित अध्यापक के ज्ञान एवं कौशल में है. सरकार को इस तथ्य पर ज्यादा गंभीरता से विचार करना चाहिए. इसमें हरदम प्रयोग नहीं करते हुए इसे विकसित होने का समय दिया जाना चाहिए, खासकर समावेशी अध्यापक शिक्षा के विकास के लिए.

अध्यापक-शिक्षा के स्वास्थ्य के लिए सरकार की घटती भागीदारी, निजी क्षेत्रों का बढ़ता प्रभाव, नौकरशाही का बढ़ता हस्तक्षेप, शिक्षकों एवं अन्य नौकरीपेशा लोगों की आमदनी के बीच बढ़ता फासला, प्रशिक्षण की गुणवत्ता को शिथिल कर शिक्षक पात्रता परीक्षा का लागू किया जाना, प्रशिक्षण की प्रवेश-परीक्षा में विद्यालयी विषयों के ज्ञान की अवहेलना आदि जैसे मुद्दों पर भी विचार करना जरूरी है. यह क्या कम जरूरी है कि शिक्षक प्रशिक्षण शिक्षकत्व का भी प्रशिक्षण दे, जिसके नहीं होने से विद्यार्थी-शिक्षक संबंध प्रभावित हो रहा है और शिक्षक पेशा में आकर भी दूसरी पेशा की ओर ताकते रहते हैं.

डॉ. ललित कुमार
लेखक


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