त्रि-शक्ति और भारत
इस समय वैश्विक स्तर पर द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय संबंधों में अनिश्चितता, गैर-संभ्रांतवादी प्रतिस्पर्धा और विरोधाभासों का संयोजन बेहद जटिल रूप में दिख रहा है.
त्रि-शक्ति और भारत |
ऐसे में वैश्विक गतिविधियों के फोकल प्वाइंट को पहचानना और निर्णायक शक्तियों के ग्रेट गेम को सीधे तौर पर नहीं समझा जा सकता. सामान्य तौर पर वैश्विक रणनीति का फोकल प्वाइंट मध्य-पूर्व प्रतीत हो रहा है लेकिन मध्य एशिया, यूरेशिया, एशिया प्रशांत, दक्षिण एशिया अथवा हिंद महासागर में भी इसके छाया बिंदु देखे जा सकते हैं.
इस समय अमेरिका ऐसी अनिश्चित विदेश नीति के साथ आगे बढ़ रहा है, जिसके चलते अमेरिकी विचारक अमेरिकी शक्ति को लेकर ‘हेडलेस सुपरमैसी’ जैसे शब्द प्रयुक्त करने लगे हैं. चीनी महत्त्वाकांक्षाएं रेनमिनबी को लग रहे झटकों के बाद भी लगातार बढ़ती दिख रही हैं जबकि रूस मध्य-पूर्व के जरिए सोवियत युग में लौटना चाहता है. प्रश्न उठता है कि भारत बहुविषमीय वैश्विक संबंधों वाली व्यवस्था में किस प्रकार की भूमिका का चुनाव करेगा? वैश्विक रणनीतिक सक्रियता एवं कुछ देशों की विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षाओं के मध्य भारत अपना स्थान कहां सुनिश्चित करने वाला है? क्या भारत को महाद्वीपीय डोमेन में रहना चाहिए अथवा मैरीटाइम डोमेन में? उस स्वयं को यूरेशियाई ताकत के रूप परिभाषित करना चाहिए अथवा एशिया-प्रशांत के रूप में या फिर सिर्फ दक्षिण एशियाई शक्ति के रूप में? ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन, एआईआईबी में सदस्यता हासिल करना और ‘वन बेल्ट वन रोड’ फोरम से बाहर रहना जबकि ये सभी एक दूसरे के पूरक के रूप में काम कर रहे हैं, क्या भारतीय विदेश नीतिकिय वैचारिकी को प्रदर्शित करता है?
भारत की जरूरत अमेरिका से स्वाभाविक दोस्ती कायम करना है या नहीं, रूस के साथ नया गठबंधन (सैनिक-आर्थिक) बनाना है या नहीं, यह देखना उतना जरूरी नहीं है लेकिन यह जानना जरूरी है कि चीन से भारत किस तरह से सतर्क है अथवा बीजिंग-इस्लामाबाद रणनीति को भारत किस तरह से देख रहा है और उसके विरुद्ध किस तरह की रणनीति अपनाने जा रहा है? किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ बिंदुओं पर गौर करना आवयक होगा. पहला, चीन ने दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों के साथ स्वैप की व्यवस्था मजबूत की है. उसने 33 ट्रिलियन यूयान के ऐसे 35 समझौते किए हैं, जिनकी मदद से अमेरिकी डॉलर में लेनदेन को दरकिनार किया जा सकता है.
चीन की महत्त्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) का सबसे अहम पहलू रेनमिनबी का अंतरराष्ट्रीयकरण भी है क्योंकि इसके घोषित लक्ष्यों में से एक है प्रतिभागी देशों के बीच वित्तीय समन्वय. सवाल यह है कि इन मंचों पर भारत अपनी भूमिका का निर्धारण कैसे करेगा? आंतरिक एशियाई परिस्थितियां इस समय नये अनुभव साझा कर रही हैं, जिसमें भारत के लिए अवसर हैं, विकल्प हैं और चुनौतियां भी. भारत के लिए जरूरी हो चुका है कि एशियाई भू-राजनीति पर अपना निर्णायक प्रभाव डाले. लेकिन उसके डिप्लोमैटिक एक्सेस में चीन और पाकिस्तान लगातार बाधा डालने की कोशिश कर रहे हैं, अमेरिका अब संदिग्ध चरित्र के साथ आगे बढ़ा है इसलिए वह चीन-पाकिस्तान को रोकने में भारत की सहायता नहीं कर सका और रूस की भारत के प्रति नीति विश्वास एवं विचलन की विशेषता नजर आ रही है.
क्या इसके बावजूद भारत आंतरिक एशिया (इनर एशिया) की वर्तमान भू-सामरिक स्थिति का आकलन कर स्वयं को महाद्वीपीय शक्ति बनने का रास्ता खोज पाएगा (कमोबेश उसी तरह जैसे चीन यहां से होकर महाशक्ति बनने का रास्ता खोज चुका है)? यूरेशियाई संगठन एसएसीओ में पूर्ण सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी के पीछे उद्देश्य क्या हैं? एक बहुध्रुवीय विश्व के निर्माण पर फोकस करना अथवा यूरेशियन इकोनॉमिक जोन में अपनी सक्रियता दिखाकर स्वयं को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में प्रोजेक्ट करना? समग्र आकलन करें तो लगता है कि भारत रूस एवं चीन, ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन और एआईआईबी के साथ एक त्रिपक्षीय फोरम में शामिल हो रहा है.
लेकिन पिछले महीने जब भारत ने बेल्ट और रोड फोरम में शामिल होने से इनकार किया था, तब से लेकर 8-9 जुलाई, 2017 यानी एससीओ की अस्ताना समिट तक क्या कुछ बदल गया था? एसीसीओ और एआईआईबी तो सही अथरे में चीनी शक्ति के इमज्रेस का प्रतीक हैं, जो भारत के लिए अमेरिका सहित किसी भी पश्चिमी ताकत की अपेक्षा कहीं अधिक कठिनाइयां पैदा करेगा. भारत के लिए मुख्य चिंता का विषय है पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ लड़ा जा रहा छद्म युद्ध. इस मसले पर चीन बातचीत के लिए ही बातचीत करता है क्योंकि वह इस मामले में पाकिस्तान पर कभी भी मौखिक या लिखित रूप से अनचाहा दबाव भी नहीं बनाता. द्वितीय चीन की बेल्ट एंड रोड पहल बीजिंग के आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक हितों को बढ़ावा देने के लिए है, लेकिन यह भारतीय की क्षेत्रीय संप्रभुता को प्रभावित करेगी.
ध्यान रहे कि चीन पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) से सीपेक को ले जा रहा है, जहां तक भारत की संप्रभुता का विस्तार है जहां से होकर चीन के सिल्क रोड इंडस्ट्रियल बेल्ट का एक हिस्सा जाता है. जिस दिन शी जिनपिंग बीजिंग में वन बेल्ट वन रोड फोरम का उद्घाटन कर रहे थे, नई दिल्ली ने विदेश मंत्रालय की तरफ से आधिकारिक तौर पर चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपेक) के संदर्भ में स्पष्ट किया था कि कोई भी देश ऐसे प्रोजेक्ट को स्वीकार नहीं कर सकता जो किसी देश की संप्रभुता संबंधी प्रमुख चिंताओं और भू-क्षेत्रीय अखंडता की उपेक्षा करता हो. कुल मिलाकर कम-से-कम एशियाई मंचों पर जो सामरिक, रणनीतिक एवं कूटनीतिक गतिविधियां हमें दिख रही हैं, उनमें भारत के लिए कई संदेश छुपे हुए हैं. इसलिए भारत को विदेश नीति के मोच्रे पर मिल रहीं कुछ सफलताओं को उन विरोधाभासों एवं अवरोधों के सापेक्ष आकलित करने की जरूरत है, जो भारत की तरफ से दुनिया को सीधा-सपाट संदेश देने और महाद्वीपीय ताकत बनने में अक्षम बना रहे हैं.
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