नजरिया : नब्ज की पहचान, जीत का मूल मंत्र

Last Updated 23 Apr 2017 03:48:05 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल बत्ती हटाने का फैसला लेकर देश-दुनिया में यह संदेश देने की कोशिश की है कि लोकतंत्र में जनता की सेवा करने वाले राजनेताओं या नौकरशाहों को आम नागरिक की तरह ही व्यवहार करना चाहिए.


नजरिया : नब्ज की पहचान, जीत का मूल मंत्र

उन्हें आम जन की तरह दिखना भी चाहिए. जिस तरीके से हमारे देश में पांच लाख से ज्यादा लोग वीआईपी के रूप में चिह्नत हैं, उससे तो यही लगता है कि लोग जनता की सेवा करने के नाम पर पद प्राप्त करते हैं, अधिकार प्राप्त करते हैं, लेकिन कुर्सी पर बैठने के बाद राजा की तरह व्यवहार करने लगते हैं. यद्यपि लोकतंत्र की मूल अवधारणा ही है कि जनता के द्वारा, जनता के लिए किया जाने वाला शासन. इसलिए लाल बत्ती एवं वीआईपी कल्चर को खत्म करने की प्रधानमंत्री की मुहिम उन्हें आम आदमी के और करीब ले जा रही है. लोकतंत्र में ऐसे हर निर्णय का स्वागत होना चाहिए, जो लोकमनभावन हो.

लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने तो लोगों में यह भरोसा बना था कि जब एक गरीब किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाला व अत्यंत सादगी से जीवन जीने वाला व्यक्ति भी अपने उच्च नैतिक आदशरे के बल पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंच सकता है; तो हमें भी अपने बच्चों को शास्त्री जी जैसा ही कर्मठ, ईमानदार एवं आदर्श व्यक्ति बनाना है. शास्त्री जी शायद भारत के इतिहास के पहले व्यक्ति होंगे, जिनके पास अपनी कोई संपत्ति नहीं थी. जब वह प्रधानमंत्री बने तो उनके सामने कई चुनौतियां थीं. उनमें एक बड़ी चुनौती अपने सामान्य जीवन स्तर को बनाये रखने की भी थी.

हालांकि पीएम के रूप में उन्हें बड़ी-बड़ी सरकारी गाड़ियां सहज उपलब्ध थीं, लेकिन उन्होंने सरकारी खजाने पर बोझ न डालते हुए अपने वेतन और कर्ज की रकम मिलाकर एक छोटी फिएट कार खरीदी थी. शास्त्री जी की तरह रफी अहमद किदवई भी सादगी की प्रतिमूर्ति थे. मंत्री पद पर रहते हुए जब उनका देहांत हुआ था, तब उनके पास मात्र ढाई सौ रुपये थे. किदवई साहब नेहरू सरकार में ऐसे मंत्री थे, जिन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही अपने चाचा से प्राप्त की थी. बाद में वह गवर्नमेंट हाई स्कूल, बाराबंकी पढ़ने गए थे.

इसी तरह, तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गज नेता के आगे-पीछे चलने वाली दस-बीस गाड़ियां का काफिला नहीं होता था. यही व्यवस्था कमोबेश इंदिरा गांधी तक चलती रही थी. लेकिन उनकी हत्या के बाद पूरे देश में लाल बत्ती एवं वीआईपी कल्चर ने जिस तरीके से अपना प्रभाव जमाया, उससे फ्यूड्ल कल्चर को बड़ा बल मिला. ऐसे में लाल बत्ती हटाने का फैसला लेकर प्रधानमंत्री ने आम लोगों को जहां लोकशाही का बड़ा भरोसा दिया है वहीं अहंकार से तने हुए सिर और नाक पर गुस्सा रखने वाले जनप्रतिनिधियों को भी यह समझाया है कि वे कोई सुपरमैन नहीं हैं. उनको जो भी शक्ति और अधिकार मिले हैं, वह जनता के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए, न कि उनके मिथ्या अभिमान या सनक पूरी करने के लिए.

यहां मैं नीदरलैंड का उदाहरण देना चाहूंगा जहां के प्रधानमंत्री मार्क रूटे दुनिया की सोलहवीं बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के प्रधानमंत्री हैं, और रोजाना साइकिल से दफ्तर जाते हैं. वहीं स्वीडन के प्रधानमंत्री ओल्फ पाल्मे का भी उदाहरण है, जिनकी 28 फरवरी, 1986 में उस वक्त हत्या कर दी गई थी, जब वह थिएटर से फिल्म देखकर बिना किसी सुरक्षा के पैदल ही अपने घर जा रहे थे. स्वीडन भी दुनिया की एक बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश था और आज भी वह दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है. यही नहीं, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडेयू की लोकप्रियता के चर्चे कनाडा समेत दुनिया भर के देशों में हैं कि किस तरह वे जनता की सेवा के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध हैं. कभी-कभी उनको भी साइकिल या किसी सोलर पैनल से चलने वाली छोटी गाड़ी से दफ्तर आते-जाते हुए देखा जा सकता है. जस्टिन ट्रूडो के फादर पियरे ट्रूडो कनाडा के 15 सालों तक प्रधानमंत्री रहे और ऐसे में बचपन से ट्रूडो ने भी प्रधानमंत्री की शानो-शौकत देखी होगी. लेकिन अब जब वे देश के प्रधानमंत्री हैं तो जनता की सेवा में वह अपने पिता से भी दो कदम आगे निकल गए हैं.

जैसा मैंने पहले कहा कि अपने देश में पांच लाख से ज्यादा लोग वीआईपी के रूप में प्रतिष्ठित हैं. यह संख्या दुनिया के सात विकसित देशों की तादाद में लाखों गुनी ज्यादा है. ब्रिटेन में करीब 84 लोग वीआईपी के रूप चिह्नित हैं तो फ्रांस में करीब 106 लोग इसी श्रेणी में हैं. इसी तरह, अमेरिका जैसे देश में मात्र 252, जापान में 125, जर्मनी में 142 लोग वीआईपी वर्ग में शुमार हैं. हाल यह है कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश चीन तक में वीआईपी की संख्या सिर्फ  435 है, जबकि रूस में यह आंकड़ा महज 312 लोगों का है. कनाडा और इटली में कमोबेश ऐसा ही हाल है.

इनके बरअक्स ही प्रधानमंत्री ने लाल बत्ती और वीआईपी कल्चर को समाप्त करने का फैसला किया है. यह करते हुए प्रधानमंत्री ने संदेश दिया है कि जनप्रतिनिधियों के सिर अहंकार से तने नहीं होने चाहिए. चूंकि नरेन्द्र मोदी ने गरीबी से लेकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का लम्बा सफर तय किया है. लिहाजा, उन्होंने कहीं गहरे में यह महसूस किया होगा कि लाल बत्ती या वीआईपी कल्चर जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच एक बड़ी दीवार है, जिसे ढहाने की जरूरत है. लिहाजा, उन्होंने जनप्रतिनिधियों और बड़ी जिम्मेदारी के पद पर बैठे लोगों को आम जन से जोड़ने की कोशिश की है. कई बार बड़े-बड़े शहरों के डॉक्टर भी किसी मरीज की असाध्य बीमारी को ढूंढ़ नहीं पाते, लेकिन गांवों में बैठा कोई अनुभवी डॉक्टर मरीज की नाड़ी टटोल कर उसका मर्ज पकड़ लेता है, और चंगा कर देता है. प्रधानमंत्री मोदी का ताजा अनुभव उसी गांव वाले डॉक्टर की तरह है, जो देश की नब्ज को ठीक-ठीक पहचानते हैं, और जो जनता को भाता है, उन्हीं निर्णयों को वह प्राथमिकता देते हैं. यही उनकी जीत का मूल मंत्र है.

उपेन्द्र राय
तहलका के सीईओ व एडिटर इन चीफ


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