मीडिया : लाल बत्ती वाला उत्तर समाजवाद
यों तो मीडिया याददाश्त का दुश्मन है, लेकिन कभी कभी रीयलिटी ही कुछ ऐसे निराले और अमर सीन बना देती है कि मीडिया भुलाए भी तो आप नहीं भूल पाते.
मीडिया : लाल बत्ती वाला उत्तर समाजवाद |
जो सीन भुलाए नहीं जा पाते उनमें कुछ ‘अतिरिक्त तत्व’ होता है. जैसे, वे जब बनते हैं और जिस घड़ी में दिखते हैं, उसमें कॉमिक न होते हुए भी कॉमिक से दिखने लगते हैं. मनोरंजन करने लगते हैं.
यों तो ऐसी आनंदकारी खबरें कई दिखी हैं. लेकिन फिलहाल सबसे मजेदार खबर की खबर ही ली जाए. जाहिर है इसे बनाया अपने पीएम ने ही. एक शाम हर चैनल पर एक ब्रेकिंग न्यूज अचानक आई कि लाल बत्ती खत्म! हर चैनल एक से एक ‘कैची’ लाइन की जुगाड़ में लग गया : एक ने लाइन दी : लाल बत्ती की कल्चर खतम! दूसरे ने लाइन दी : वीआईपी कल्चर के गाल पर तमाचा! तीसरे ने लाइन दी : अंग्रेजों की औपनिवेशिक विरासत का खात्मा! खबर का सबसे बुरा और तुरंता ‘इंपेक्ट’ एंकरों पर हुआ. वे उत्तर समाजवादी किस्म की खुशी और उत्तेजना में बौराए हुए न जाने क्या-क्या बोल बोलने लगे. ‘यह है समाजवाद’! ‘उपनिवेशवाद के अवशेष हों बर्बाद’! ‘आज से राजा रंक सब बराबर’! ‘हैसियत की नुमाया और भेदभाव खत्म’! ‘पीएम ने अपने को भी नहीं बख्शा’! ‘प्रेसीडेंट तक लाल बत्ती नहीं लगा सकेंगे’! ‘सिर्फ कुछ जरूरी सुविधाएं नीली बत्ती लगा सकेंगी’!
मगर ये तो खबर की खबर थी. बार-बार फेंटी जाकर खबर रबर बन चली थी. अपने एंकर-संपादक इसके पुराने एक्सपर्ट हैं. एक लाइन की खबर को भी सत्तर लाइनों में तान सकते हैं, संग में विस्फोटक म्यूजिक का फ्यूजन मारकर आपका ध्यान खींच सकते हैं. और हम तो पहले से ही इस समाजवादी किस्म की खबर पर फिदा थे, लेकिन हमारा ध्यान इन लाइनों से जल्द ऊब गया. उन सीनों का आनंद लेने लगा जो इस खबर ने अपने झटके से तुरंत बनाए थे. सीन भी एक से एक ‘दुख-सुखकारी’ थे. उनमें बनता ‘त्वदीयम् वस्तु गोविंदम् तुभ्यमेव समर्पये’ वाला क्लासिकल ‘त्याग भाव’ एक ऐसे ‘कॉमिक टच’ के साथ दर्शकों तक पहुंचता था कि बरबस हंसी फूट पड़ती थी.
अहा! वो देखो, वो जाना-माना मंत्री अपने ही हाथ से अपनी ही गाड़ी की छत से लाल बत्ती को किसी तरह पकड़ने की कोशिश कर रहा है. वह पकड़ में मुश्किल से आई है. उसे उखाड़ रहा है. वह उखड़ गई है. उसे गाड़ी के अंदर रख रहा है..उसके आस-पास के लोग देखे जा रहे हैं. दूसरा भी यही कर रहा है. फर्क इतना है कि उसकी पकड़ में लाल बत्ती आसानी से आ गई है. उसने उसे उतार कर अपने कर्मचारी को दे दिया है. तीसरा वीआईपी भी इसी तरह उतार रहा है. चेहरे पर प्रसन्नता ओढ़े रहा है जैसे एक बड़ा राष्ट्रीय कर्तव्य पूरा कर रहा हो.
उत्तर समाजवादी ये कुछ सीन बड़े ही मनोहारी थे. कलह भरे चैनलों में कुछ सुकून का अनुभव कराते थे. देख-देख दर्शक अपने को सुखी महसूस कर रहे थे कि चलो, इनकी अकड़ कुछ तो ढीली हुई. कुछ तो ठसक कम हुई. इनकी वीआईपी कल्चर कुछ तो कम हुई. मगर शाम तक आते-आते हमारे उत्तर समाजवादी एंकर सिर्फ इतने से तुष्ट नहीं दिखे. कहने लगे कि लाल बत्ती चली गई, लेकिन उस अकड़, अहंकार का क्या करोगे जो बड़े नेताओं के पास जन्मजात होता है. उनकी सुरक्षा, विशेष सुविधाएं, मकान, मिलने वाली रियायतें कब खत्म होंगी?
तभी एक चैनल पर एक बड़े वकील आए. इस कदम के लिए पीएम को सेल्यूट किया. चैनल ने भी लिखा ‘पीएम को सेल्यूट!’ उत्तर समाजवाद के दिनों में इन उत्तर समाजवादी एंकरों के समाजवादी सुख और विरह के बीच मेरे जैसे दर्शक के लिए तो वे सीन ही काफी थे, जो कई परिचित वीआईपी चेहरों को अपने ही हाथ से अपनी शान को उतारते दिखाते थे जैसे कोई अपनी पगड़ी उतारता है.
कल तक जो चेहरे अंहकार से दीप्त चैनलों पर गरजते-बरसते थे, अचानक कुछ बुझे से दिखते थे. यद्यपि ऊपर कुछ प्रसन्न भाव ओढ़े नजर आते थे लेकिन सीन का मूल भाव दुखमिश्रित मलाल या खिसियाहट वाला ही दिखता था. ‘मोदी जी ने पहले क्यों नहीं किया अभी क्यों किया?’..‘उनको जब सूझा तब किया. सत्तर साल में किसी ने क्यों नहीं किया?’..आदि तर्क-वितर्क बेकार थे. असली चीज खिसियाहट का भाव था, जो ऐसे हर सीन में तारी था.
हम भी आदत से मजबूर हैं. जब भी कोई वीआईपी खिसियाता है, तो कुछ ‘सेडिस्ट’ किस्म का सुकून न जाने क्यों महसूस होता है? इन अहंकारी दिनों में तो लाल बत्ती का हटना भी एक तरह का नया और देसी उत्तर समाजवाद है.
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