परत-दर-परत : चुनाव लड़ने के बारे में एक नजरिया

Last Updated 23 Apr 2017 03:29:45 AM IST

स्वराज इंडिया पार्टी के योगेंद्र यादव से मेरा परिचय है. दाद देता हूं कि अपने शानदार एकेडेमिक कॅरियर को अधबीच में छोड़ उन्होंने राजनीति के असुरक्षित मैदान में उतरने का निर्णय किया है.


स्वराज इंडिया पार्टी के नेता योगेंद्र यादव (फाइल फोटो)

मानता हूं कि आप के नेता अरविंद केजरीवाल ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण तथा उनके निष्ठावान साथियों के साथ अन्याय किया है. इसका एकमात्र कारण, मेरी समझ से, यह था कि ये लोग केजरीवाल से ज्यादा योग्य, लोकतांत्रिक और आदर्शवादी हैं. जब तक इनकी उपयोगिता थी, दिल्ली के मुख्यमंत्री इनके साथ खूब हिले-मिले रहे. पर सत्ता पाने के तुरंत बाद से ही ये ‘मित्र, दार्शनिक और गाइड’ बोझ लगने लगे. सत्ता का चरित्र ही कुछ ऐसा हो गया है कि आदर्श और मूल्य सफर को बोझिल बना देते हैं. टूरिज्म के गाइड भी सलाह देते हैं, कम सामान ले कर चलिए.
योगेंद्र यादव के आंदोलन का नाम है, स्वराज अभियान. उसी से ‘स्वराज इंडिया’ नाम की पार्टी उपजी है. यह नाम मुझे पसंद नहीं है. मैं समझता हूं कि किसी भी देश का एक ही नाम होना चाहिए. हमारे संविधान निर्माताओं ने देश का नाम ‘इंडिया दैटिज भारत’ लिख कर ऐतिहासिक भूल की थी. ग्रेट ब्रिटेन को हम कभी बर्तानिया कहते थे. इससे वह ब्रिटिश लोगों के लिए बर्तानिया नहीं हो गया. इंडिया नाम सिंधु नदी के नाम से होते हुए आज अंतरराष्ट्रीय हुआ है, पर भारत की किसी भी देशी भाषा में इंडिया कहने का रिवाज नहीं है. बल्कि ‘भारत बनाम इंडिया’ के मुहावरे में तो इंडिया शब्द भारत का विरोधी ही लगता है. इसलिए मैं समझता हूं कि योगेंद्र जी और उनके साथियों को इस शब्द से बचना चाहिए था. प्रशांत भूषण के बारे में मैं नहीं जानता, पर योगेंद्र यादव निश्चित रूप से अंग्रेजियत के विरोधी हैं. मैं उनसे पार्टी के नाम पर पुनर्विचार करने का आग्रह करता हूं. पार्टी का नाम ऐसा होना चाहिए जिससे देशीपन की खुशबू आए.

स्वराज इंडिया इस बार दिल्ली के नगर निगम चुनावों में  272 वार्डों में से 211 पर चुनाव लड़ रही है. लोग महसूस करते हैं कि पुरानी पार्टयिों का दम निकल चुका है. उनसे अब कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. इनमें भाजपा के गालों पर आज सफलताओं की लाली है, पर यह खून की लाली की ओर भी संकेत करती है. दिल्ली के नगर निगमों पर पंद्रह वर्षो से भाजपा का कब्जा रहा है. इससे यह तो पता चलता है कि स्थानीय स्तर पर भाजपा के लोग यहां रहने वालों से ज्यादा घुले-मिले हैं, पर मेरी मुलाकात किसी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं हुई है,  जो इन नगर निगमों के काम से संतुष्ट हो.
इसलिए परिवर्तन तो होना ही चाहिए पर सत्ता में आने के लिए प्रत्येक नवागंतुक को पहले वोट मांगने का हक कमाना होगा. दूसरे बुरे हैं, इसलिए हम अच्छे हैं, यह भारत की राजनीति का सबसे मजबूत तर्क रहा है. ज्यादातर वोट नकारात्मक पड़ता है. फलस्वरूप खारिज की गई पार्टयिों को भी सत्ता में आने का अवसर मिल जाता है. लेकिन राजनीति की दिशा में परिवर्तन नहीं आता. नतीजतन, आज हम एक राजनैतिक निर्वात में आ पहुंचे हैं, जहां सांस लेने में भी घुटन हो रही है.
यही वह घुटन भरा वातावरण है जिसमें ‘आप की पार्टी’ (यह नाम मुझे हमेशा चलताऊ, बल्कि सड़कछाप लगा है) को मिली अप्रत्याशित राजनैतिक सफलता ने देश भर में उम्मीद की किरण पैदा की थी. लेकिन अब यह उम्मीद धूमिल हो चुकी है. उसके प्रशंसकों की संख्या घट रही है, आलोचक बढ़ रहे हैं. दिल्ली में ढाई साल तक शासन करने के बावजूद कोई चमत्कार पैदा न करने पर भी केजरीवाल राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने की कल्पना करने लगे. इस उतावली का ही नतीजा है कि पिछले विधान सभा चुनावों के बाद से उनके चेहरे की रौनक थोड़ी कम हुई है. जब मायावती के अजीब-से सुर में सुर मिलाते हुए उन्होंने भी ईवीएम मशीनों की चरित्र हत्या शुरू कर दी, तब मेरा यह विश्वास और पुख्ता हो गया कि उनमें वह गुण बहुत ही कम है,  जिसे आत्मनिरीक्षण के नाम से जाना जाता है.
प्रतीत ऐसा होता है कि जब नगर निगम चुनावों के परिणाम निकलेंगे, तब स्वराज इंडिया के नेताओं के चेहरों पर केजरीवाल से ज्यादा निराशा झलक रही होगी. यह निश्चय ही अफसोस की बात होगी क्योंकि इस पार्टी के विचारों में संभावना दिखाई देती है. पर इस अफसोस पर अफसोस इसलिए नहीं होगा कि स्वराज इंडिया के लोग जमीन पर काम करने के बजाय चुनाव लड़ने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं. इसे मैं अनैतिक कहने का साहस करता हूं. यह ‘काम न धाम बड़ी बुआ सलाम’ का एक घटिया संस्करण हैं. आप विद्वान हैं, महान वकील हैं, इसलिए हम आप को वोट दे दें, यह बात मेरे तर्क में नहीं बैठती. आप की महानता के बारे में हमने पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा है, पर अपने-अपने मोहल्लों में तो हमने कभी आप के या आप के कार्यकर्ताओं के दर्शन नहीं किए. आप को कई वर्ष पहले से पता था कि ईस्वीं सन् 2017 के मई महीने में दिल्ली शहर में नगर निगम चुनाव होंगे. फिर भी आप ने मोहल्ला और वार्ड स्तर पर सक्रियता नहीं दिखाई. चलिए, मेरे जैसे लोग भरोसा कर लेंगे, पर साधारण जनता किस आधार पर आप को वोट दे?

राजकिशोर
लेखक


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