परत-दर-परत : कुछ नये की खोज में उत्तर प्रदेश

Last Updated 19 Mar 2017 04:40:10 AM IST

वोट डालने की ईवीएम मशीन पर शक करना भारतीय राजनीति की एक नई परिघटना है.


परत-दर-परत : कुछ नये की खोज में उत्तर प्रदेश

अभी तक किसी ने दावा नहीं किया था कि ईवीएम के जरिए मतों में हेर-फेर किया जा सकता है. वर्षो पूर्व, जब भाजपा विपक्ष में थी, उससे जुड़े एक सज्जन ने एक किताब जरूर लिखी थी, जिसमें प्रमाणित करने की कोशिश की गई थी कि ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है. इस शक के साथ सुब्रह्मण्यम स्वामी तथा कुछ लोग अदालत में भी गए थे. मशीनों की प्रामाणिकता जांचने के लिए तब चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को बुलाया था. कहा था कि कोई सौ मशीनों की जांच कर लीजिए. कुछ आगे बढ़े, कोशिश भी की, पर कुछ साबित नहीं कर  सके. अदालत ने निर्णय दिया कि मशीनें निर्दोष हैं (लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा ने ईवीएम मशीनों की वफादारी पर कभी शक नहीं किया).

यह इतिहास है. तब से अब तक टेक्नोलॉजी में इतना विकास हो चुका है कि कोई चीज असंभव प्रतीत नहीं होती. मैं  चुनाव आयोग की इस बात को मानने को तैयार हूं कि ईवीएम मशीनें पूरी तरह से निर्दोष हैं. लेकिन उन संदेहवादियों के मत को  खारिज करने को पूरी तरह तैयार नहीं हूं कि उनमें बड़े पैमाने पर घोटाला हुआ है.  दोनों परस्पर-विरोधी बातें लग सकती हैं, लेकिन हैं नहीं, क्योंकि दोनों में ही टेक्नोलॉजी की संभावनाओं के प्रति विश्वास है. शुरू में सिर्फ  बसपा नेता मायावती ने यह आरोप लगाने का साहस दिखाया. बाद में कुछ और लोग यही कहने लगे. इनमें दिल्ली के मुख्यमंत्री भी हैं. लेकिन इनके संदेह का निराकरण क्या बहुत आसान नहीं है? चुनाव आयोग संदेह करने वाले सभी लोगों को अपने दफ्तर में बुलाए और उनसे कहे कि इन मशीनों में से किसी एक को भी दुष्टता के लिए संभव साबित कर दो, तो हम चुनाव दुबारा करने के लिए तैयार हैं. यह कोई बड़ा कदम नहीं है. आश्चर्य है कि आयोग ने अभी तक यह प्रस्ताव नहीं रखा है.

ईवीएम मशीनों के बारे में संदेह चुनाव के पहले प्रगट नहीं किया गया था, क्योंकि बसपा को उम्मीद थी कि इस बार चुनाव अवश्य जीतेगी. यही उम्मीद सपा-कांग्रेस को भी थी. चुनाव परिणामों से उन्हें भी निराशा हुई थी, क्योंकि वे ही भाजपा के प्रमुख प्रचारक नरेन्द्र मोदी को तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे रहे थे. लेकिन उन्होंने अपनी हार के इस संभावित कारण के मामले में संयम बरता. अधिकांश राजनैतिक टिप्पणीकारों को लग रहा था कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में बहुमत मिलने नहीं जा रहा. स्वयं प्रधानमंत्री ने एक चुनाव भाषण में हंग असेंबली के संकेत दिए थे. लेकिन चुनाव परिणाम हमेशा प्रत्याशा के अनुसार ही निकलते होते, तो उनमें  मजा ही क्या रहता. मोदी के ही बारे में किसे विश्वास था कि संसदीय चुनाव में उन्हें इतना प्रचंड बहुमत मिलेगा. इसके पहले राजीव गांधी को भी. लेकिन इसके पहले ईवीएम मशीनें संदेह के घेरे में नहीं आई थीं. मशीनों के साथ जितनी छेड़छाड़ की जा सकती है, उससे कहीं बहुत ज्यादा आदमियों के दिलो-दिमाग के साथ की जा सकती हैं.

यहां मैं अपने को इस मत से पूरी तरह सहमत पाता हूं कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को कुछ नये की तलाश है. सबसे पहले  लोक सभा चुनाव में मोदी की प्रभावशाली जीत ने इस संभावना की ओर हमारा ध्यान खींचा था. इसलिए हम कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में नई बात कुछ भी नहीं है, यह मोदी के चुनाव की निरंतरता ही है. यह बात इसलिए भी कही जा सकती है कि उत्तर प्रदेश का विधान सभा चुनाव स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ही लड़ रहे थे. तब कहा भी गया था कि देखो, देखो, एक प्रधानमंत्री एक मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ रहा है. नि:संदेह उत्तर प्रदेश से बिहार जैसे चुनाव परिणाम की आशा नहीं की जा सकती थी, क्योंकि बिहार में विपक्षी एकता बन गई थी, जो उत्तर प्रदेश में संभव नहीं हो सकी. अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को साथ ले कर एक छोटा-सा कदम जरूर बढ़ाया था, पर उत्तर प्रदेश में गठबंधन कांग्रेस से नहीं, बसपा के साथ किया जाना चाहिए था. तब भी गारंटी नहीं होती कि भाजपा नहीं जीतती क्योंकि मतदाता पुराने ढर्रे की राजनीति से बुरी  तरह ऊब चुका है, और नये सपनों की गिरफ्त में है. दरअसल, ऊब तो भाजपा से भी चुका है, लेकिन नरेन्द्र मोदी नामक फेनामेना ने उसके हृदय में कुछ नये सपने पैदा कर दिए. उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि वे सपने अभी मरे नहीं हैं. यही मोदी का ताकत है, जिसका मुकाबला दूसरे दल नहीं कर पा रहे हैं.

यहीं से भाजपा का मुकाबला करने का रास्ता भी निकालता है. पुराने से नये को नहीं हराया जा सकता. कांग्रेस और वामपंथी, दोनों की समस्या यह है कि वे अपने पुराने तौर-तरीकों से हटने के लिए तैयार नहीं हैं. अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने करवट ली है, पर वह अभी तक समाजवादी नहीं बन पाई है. लालू प्रसाद घोषणा कर चुके हैं कि हमारी पीढ़ी बीत चुकी है, अब नये लोगों के मंच पर आने का समय है. नीतीश कुमार साईकिल बंटवा कर और शराब बंद करा कर मदहोश हैं. इसलिए जो लोग यह प्रस्तावित कर रहे हैं कि 2019 में एक महागठबंधन ही वर्तमान सत्ता को अपदस्थ कर सकता है, वे सोये हुए को फूल सुंघा रहे हैं. नये का जवाब तो नये से ही देना होगा, जिसकी कोई तैयारी दिखाई नहीं देती. बासी कढ़ी में कितना उबाल आ सकता है?



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