मीडिया : धूल और मीडिया

Last Updated 05 Feb 2017 03:14:51 AM IST

मीडिया पहले समस्या बनाता है. फिर उसे दूर करने का उपाय बताता है और उपाय में सहायक ब्रांडों की मार्केटिंग करने लगता है.


सुधीश पचौरी, लेखक

हर बरस सीजन टू सीजन किसी बड़ी बीमारी, बड़ी समस्या, बड़ी आफत को बताना, बता-बता कर जनता को डराना और फिर उसका उपाय बताना मीडिया की आदत बन चला है. बिजनेस की दुनिया में यह एक सामाजिक कार्य माना जाता है क्योंकि समस्या है तो समाधान होना चाहिए. वे घर बैठे आपको आसान उपाय बताते हैं कि आप ये खरीदें और मजे में रहें.

इन दिनों दो-तीन एकदम नये विज्ञापन नजर आते हैं, जो एक नई समस्या का बखान करते हैं. फिर उसका समाधान देते हैं और नये ब्रांड की ओर आपको ललचा देते हैं. एक विज्ञापन कहता है कि भारत तो रोज बनेगा और धूल भी उड़ेगी. धूल से बचना है तो  घर की दीवारों पर यह पेंट लगवाएं. धूल नहीं जम पाएगी. फिर उस पेंट का विज्ञापन आने लगता है. ऐसा ही एक विज्ञापन सीलिंग फैनों का आता है. एक आदमी पत्नी से कहता है कि उस पंखे को लो जिसमें धूल नहीं टिकती. विज्ञापन दो पंखे दिखाता है. एक की पंखड़ियों में धूल भरी है, जो चिपकी नजर आती है. नये पंखे की पंखड़ियों में भी धूल दिखती है, लेकिन वह चिपकती नहीं. सारी झर जाती है. तीसरा विज्ञापन धूल और कार्बन को दूर कर हवा को शुद्ध बनाने वाली मशीन का है.

विज्ञापन की भाषा बड़ी प्रपंची होती है. उसका एक नहीं बल्कि कई अर्थ होते हैं. वे लक्षित समस्या-समाधान तक की पूरी कहानी कहा करते हैं. उनमें नेरेटिव, वृतांत होता है वही ब्रांड को प्रिय बनाता है. ध्यान दें तो पहले विज्ञापन में दो-तीन संदेश हैं :

पहला यह कि भारत तो रोज बनेगा यानी विकासमान ही रहेगा. भवन निर्माण कार्य कहीं न कहीं चलता ही रहेगा. दूसरी कि यह धूल बनती ही रहेगी. तीसरी यह कि धूल हानिकारक होती है. न जाने कौन-कौन से रोग पैदा करने वाली. सो, ऐसा किया जाए कि नये मकान में धूल आए ही नहीं. आए तो चिपके नहीं. न चिपकने के लिए एक ही उपाय है खास ब्रांड वाला पेंट. विज्ञापन धूल में काम करने वाले मजदूरों को एकदम भूल कर चलता है. नहीं सोचता कि धूल तो उनके फेफड़ों में जाएगी. उनका क्या होगा. वह सिर्फ मकान मालिक की चिंता करता है. दूसरा विज्ञापन भी धूल के खिलाफ नये पंखे बेचता है. कहता है पुराने तमाम पंखे धूल वाले होते हैं. नये में धूल नहीं जमती. यानी पुराने पंखे बदलो. नये ले आओ. तीसरे किस्त के दो विज्ञापन दिखे जो शुद्ध हवा देने के लिए बनाए गए हैं. इनको एक नामी हीरोइन बेचने आती है. कहती है यह मशीन आपके बच्चों को साफ हवा देगी. अशुद्ध हवा के कारण आपके बच्चे बीमार पड़ते हैं.

धूल के खिलाफ शुद्ध हवा के इस विज्ञापन अभियान के पीछे वे खबर आइटम याद किए जा सकते हैं, जो कुछ बरस पहले दिल्ली-मुंबई के लिए आते रहते थे. बताते थे कि इन तथा अन्य शहरों का कार्बन लेवल क्या है? हवा कितनी प्रदूषित है और कौन-सी बीमारियों को पैदा कर रही है? एक अंग्रेजी अखबार तो पूरा पेज दिया करता था. खराब हवा और जनता की चिंताएं बताता था. ऐसी खबरें बताती रहतीं कि दिल्ली की हवा को डीजल ट्रक खराब करते हैं, या कारें खराब करती हैं? नतीजा भी बताया जाता कि कारों का धुआं ट्रकों से ज्यादा खतरनाक होता है. इससे निपटने के लिए ‘ऑड इवन’ किया गया. फिर भी नतीजा नहीं निकला. कुछ दिन यही चला. फिर अचानक उनके बाजू में वे मशीनें विज्ञापित होने लगीं जो हवा को साफ करने वाली बताई जातीं. अब टीवी पर भी ऐसी मशीनें आये दिन दिखती रहती हैं.

तो क्या हो? यही कि मकान बनाएं तो नया पेंट लगाएं. नया पंखा लें. शुद्ध हवा के लिए मशीन खरीदें. धूल-अशुद्धता के खिलाफ खड़ी होने वाली नई उपभोक्ता इंडस्ट्री में कुछ और आइटम भी बनेंगे. बिकने आएंगे, लेकिन गांरटी ले लीजिए कि तब भी अशुद्ध हवा वाली लॉबी खत्म नहीं होगी. वह दस रोग और बना देगी. हमें डराती रहेगी. नये ब्रांड खरीदने को मजबूर करती रहेगी. धूल आगे भी उनके लिए खलनायक होगी जबकि पश्चिम के विकसित देश आजकल अपने बच्चों की इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए धूल में खेलने और मैला होने के लिए भेजते हैं. धूल भी वहां एक उद्योग है. अगर धूल रोग देती है तो इम्यूनिटी भी बढ़ाती है. अगर यह सच है तब काहे हमारी धूल से हमें वंचित करने के चक्कर में हैं ये लोग? हम जानते हैं कि वे हमें हमारी ही धूल से वंचित करेंगे और फिर हमें कहेंगे कि स्वास्थ्य के लिए धूल फायदेमंद है. अब धूल बनाने की मशीन लो और स्वस्थ रहो!



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