मुद्दा : विरासत को टांगने की राजनीति

Last Updated 17 Jan 2017 06:04:42 AM IST

महात्मा गांधी की खादी आजादी की प्रतीक है, महात्मा गांधी की खादी देश की धरोहर है, महात्मा गांधी की खादी स्वदेशी का प्रतीक है.


मुद्दा : विरासत को टांगने की राजनीति

महात्मा गांधी की खादी स्वाभिमान का प्रतीक है, महात्मा गांधी की खादी आत्मबल का प्रतीक है, महात्मा गांधी की खादी स्वावलंबन का प्रतीक है, महात्मा गांधी की खादी रोजगार का प्रतीक है, महात्मा गांधी की खादी मजबूत ग्राम का प्रतीक है.

जिस दिन महात्मा गांधी चरखे पर बैठे थे, उसी दिन वे आजादी के शक्तिमान हस्ती हो गए थे, अंग्रेजों को संदेश दे दिया था कि महात्मा गांधी की खादी, महात्मा गांधी की आधी लंगोटी और महात्मा गांधी की लाठी अंग्रेजी शासन के सीने पर अंतिम कील साबित होने वाली है. खादी निर्माण से जहां अंग्रेजी वस्त्रों का बहिष्कार शुरू हुआ था, वहीं जन-जन तक खादी पहुंच गई थी. चरखे से महात्मा गांधी की तस्वीर हटाने पर जो विवाद खड़ा हुआ है, वह स्वाभाविक ही है. विरोध अस्वाभाविक भी नहीं है. ऊपर से कुछ फायरब्रांड नेताओं के बयान ने काफी हलचल मचाई है.

तर्क और कुतर्क दोनों जारी है, आगे भी जारी रहेंगे? इसलिए कि महात्मा गांधी की खादी, लाठी, लंगोटी और अहिंसा की शक्ति कुछ प्रकार के लोगों को कुछ ज्यादा ही कचोटती है, इसलिए ऐसे लोग उन्हें राष्ट्रपिता मानने से इनकार करते हैं, उन्हें आजादी के आंदोलन का एक मात्र सर्वश्रेष्ठ प्रतीक स्थापित करने के खिलाफ रहते हैं और समय-समय पर कुछ ज्यादा ही विवादास्पद टिप्पणियां कर देते हैं.

चरखे से तस्वीर हटाने पर हुए विवाद पर जो हरियाणा के एक मंत्री और अन्य के बयान आए हैं, वे भी इसी दायरे में आते हैं. यह हो सकता है कि खादी वस्त्रों की बिक्री से संबंधित विज्ञापन और कैलेंडर से महात्मा गांधी की तस्वीर गांधी की छवि कमजोर करने या फिर उनका नाम भारत के नक्शे से हटाने के उद्देश्य से नहीं हटाई गई हो पर विवाद के दौरान आए अस्वीकार और अज्ञानतापूर्ण बयान ने आग में घी का काम किया है.

जनमानस को आभास हुआ कि सही में नरेन्द्र मोदी सरकार महात्मा गांधी की विरासत को हाशिये पर टांगना चाहती है, इसीलिए खादी कैलेंडर से उनकी तस्वीर हटाई गई है. मोदी और राष्ट्रवादी तबका गांधी के अकेले दुश्मन और आलोचक या फिर गलतबयानी के गुनहगार नहीं हैं. मोदी, राष्ट्रवादी तबके के अलावा कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी भी कम गुनहगार नहीं हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी के सिद्धांतों और उनकी विरासत की कब्र खोदी है.

महात्मा गांधी को लेकर नरेन्द्र मोदी की दो प्रकार की छवियां हैं. एक मुख्यमंत्री के दौरान की छवि तो दूसरी प्रधानमंत्री काल की छवि. निश्चित तौर पर मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी गांधी को लेकर असहिष्णुता रखते थे, वे गांधी कहने की जगह उन्हें मोहन दास करमचंद गांधी कहा करते थे. लेकिन जैसे ही मोदी प्रधानमंत्री बने वैसे ही वे गांधी को सम्मान देने और कांग्रेस से गांधी के विरासत को छीनने की कोशिश करते दिखे. गांधी को प्रतीक बना कर उन्होंने स्वच्छता अभियान चलाया.

महात्मा गांधी और अम्बडेकर को मोदी द्वारा दिए जा रहे स्थान और सम्मान को लेकर संघ के अंदर भी प्रश्न उठे हैं. लेकिन खादी कैलेंडर से महात्मा गांधी की तस्वीर गायब होने के बाद संघ समर्थक मोदी सरकार से जरूर खुश होंगे. यह भी सही है कि मोदी कांग्रेस को महत्त्वहीन बनाने के लिए गांधी और पटेल जैसे उन सभी प्रतीकों को अपना बनाने की कोशिश की है, जिस पर कांग्रेस कभी गर्व करती थी और अभी भी कांग्रेस इन्हें अपना इतिहास व थाती बताती है.

खादी कैलेंडर विवाद में वे भी कूदे हैं और गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं, जो गांधी को कभी पूंजीपतियों का दलाल बताते थे. क्या यह सही नहीं है कि आजादी के दौरान ही नहीं, बल्कि आजादी के बाद भी कम्युनिस्ट महात्मा गांधी को पूंजीपतियों का दलाल कहते थे? क्या कम्युनिस्टों ने गाधी को भगत सिंह की फांसी का बचाव नहीं करने का गुनहगार नहीं ठहराया था? कम्युनिस्टों का दर्द था कि गांधी की छवि जन-जन के दिल में बस चुकी थी. इस कारण कम्युनिस्ट भारत क्रांति नहीं कर सके.

कांग्रेस गांधी को अपना इतिहास और थाती मानती है. क्या यह सही नहीं है कि महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने कुर्सी पर बैठे लोगों ने देश में कोयला घोटाला, राष्ट्रमंडल घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला को अंजाम नहीं दिया था. मोदी सरकार गांधी पर नकारात्मक नजरिया रख कर जनप्रिय नहीं हो सकती है. मोदी सरकार ने स्वच्छता अभियान में गांधी को प्रतीक बना कर सराहनीय प्रयास किया था मगर कैलेंडर विवाद ने सरकार की छवि जरूर खराब की है.

विष्णुगुप्त
लेखक


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