समावेशी शिक्षा : वक्त की यही मांग

Last Updated 17 Jan 2017 06:10:07 AM IST

समावेशी विकास एवं समावेशी समाज के लिए सबसे आवश्यक तत्व है समावेशी शिक्षा.


समावेशी शिक्षा : वक्त की यही मांग

भारत के वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य में समावेशी शिक्षा के सत्य से साक्षात्कार के लिए सर्व-शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान की समीक्षा जरूरी है. जैसा कि विदित है ये तीनों अभियान क्रमश: प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा को गति प्रदान करने के उद्देश्य से शुरू किए गए हैं.

कहना न होगा कि इनकी शुरुआत की तिथियां अलग-अलग हैं और इनके संचालन में भी आवश्यक भिन्नता है. देश सर्व शिक्षा अभियान की प्रगति से उत्साहित है, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान अपने निर्धारित उद्देश्य की दिशा में मजबूती से बढ़ रहा है और राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान से भी राज्य के विश्वविद्यालयों को काफी अपेक्षा है. परंतु क्या यह भारत की शिक्षा को समावेशी स्वरूप प्रदान करने के लिए काफी है? योग्य एवं प्रशिक्षित प्राध्यापकों की कमी, विद्यालय की कमी और विद्यालयों में आधारभूत संरचना का अभाव सर्व शिक्षा अभियान की सफलता के सामने कड़ी चुनौती है.

हाईकोर्ट के निर्देश के बाद भी सरकारी अधिकारी अपने बच्चों एवं बच्चियों के नामांकन सरकारी विद्यालयों में कराने की स्थिति में नहीं हैं, फिर यह स्वयंसिद्ध है कि हमारा विद्यालय कितना समावेशी है! वैसे तो समावेशी शिक्षा की ओर पहला कदम दिव्यांगों की शिक्षा के रूप में उठा था. मगर कालक्रम में वंचितों की शिक्षा से भी इसका संबंध जुड़ता चला गया. समावेशी शिक्षा से अभिप्राय आज ऐसी शिक्षा से है, जो एक ही प्रागंण में सभी को शिक्षा प्रदान करती हो, किसी वर्ग या श्रेणी के लिए अलग से शिक्षा प्रदान नहीं करती हो.

शिक्षा-शास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों के मत ने आज इस विषय को और ज्यादा महत्त्वपूर्ण बना दिया है. उनका यह मानना है कि समावेशी शिक्षा न केवल राष्ट्रीय एवं सामाजिक जरूरत है, बल्कि सभी श्रेणी के विद्यार्थियों के स्वाभाविक विकास के लिए आवश्यक भी है. यह कहना भी अनुचित न होगा कि वे यह सोचते हैं कि व्यक्ति के व्यक्तित्व के संतुलित एवं सर्वागीण विकास के लिए समावेशी शिक्षा ही एकमात्र विकल्प है. अपनी कोशिशों के बावजूद राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान माध्यमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के उद्देश्य से काफी दूर है.

अपने स्थापित उद्देश्य के लिए इस अभियान को बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. माध्यमिक शिक्षा के लिए शिक्षकों की कमी, विद्यालयों का अभाव, विभिन्न प्रकार के विद्यालय, विभिन्न राज्यों की विभिन्न शैक्षिक दुर्बलताएं, मूल्यांकन की चुनौती आदि जैसी कठिन समस्याएं हैं. दुख के साथ कहना पड़ता है कि जब राष्ट्र सबों को माध्यमिक शिक्षा ही उपलब्ध कराने में अशक्त है तो फिर समावेशी शिक्षा की अपेक्षा बेमानी है. समावेशी शिक्षा की दृष्टि से यह तथ्य कितना चौंकाने वाला है कि राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान की सीमा राज्यों के उच्च शिक्षण संस्थानों तक ही है. केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थान इससे परे हैं.

नैक मूल्यांकित संस्थानों को ही अनुदान देने की इस अभियान की शर्त शैक्षिक संस्थानों की समस्याओं एवं कमियों के आलोक में समावेशी शिक्षा की अवधारणा के विपरीत है. शिक्षकों के खाली पद, संस्थानों के भौतिक संसाधन, प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय की बदतर स्थिति आदि उनके सामने गहन चुनौती प्रस्तुत करता है. एक तरफ तो ये संस्थाएं इन चुनौतियों में फंसे हैं तो दूसरी तरफ खराब नैक ग्रेड उन्हें अनुदान से वंचित करता है. कुछ संस्थान तो नैक के मूल्यांकन की आवश्यक अर्हता भी पूरी नहीं करते. कहना न होगा कि ऐसी स्थिति सरकारी संस्थानों की ही है और यह भी विदित है कि इन संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्रा-छात्राएं भी अधिकतर समाज के कमजोर तबकों से ही संबंधित है. सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में भौतिक संसाधन की कमी, शिक्षकों के रिक्त पड़े पद, नये आवश्यक पदों की स्वीकृति, संस्थानों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता में कमी आदि जैसी समस्याएं समावेशी शिक्षा की दिशा में किए जा रहे प्रयासों की पोल खोल देती है.

कल का गौरवशाली संस्थान आज रंग-रोगन तक के लिए तरस रहा है. हमारी ये गौरवशाली संस्थाएं, जिन्होंने समाज को हर क्षेत्र के लिए विभूति प्रदान की है-कुप्रबंध, वित्तीय संकट एवं शिक्षकों की कमी की वजह से बदहाल हैं. केंद्रीय मानव संसाध मंत्री का हाल में दिया यह बयान की भारत बीस विस्तरीय विश्वविद्यालय प्रदान करेगा, जिसमें से दस सरकारी एवं दस निजी होंगे- किस समावेशी शिक्षा की तरफ इशारा करता है? वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा पांच अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों की स्थापना की सोच भी समावेशी नहीं है.

विद्यालय स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक निजी संस्थाओं की बढ़ती संख्या और प्रभाव समावेशी समाज के समावेशी शिक्षा के जरिये समावेशी विकास की योजना के लिए लाभकारी होगी-संदेह है. समावेशी शिक्षा में समान शिक्षा, सबके लिए शिक्षा, समावेशी विकास के लिए शिक्षा और समावेशी समाज के निर्माण जैसी अवधारणाएं समाहित है. देश में विद्यालय स्तर से लेकर उच्च शिक्षा के स्तर तक सरकार की निजी संस्थाओं के विकास के प्रति सोच, सरकारी संस्थाओं की कमी, सरकारी संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रा-छात्राओं की सामाजिक पृष्ठभूमि, शिक्षकों की घोर कमी और भौतिक सामग्री का अभाव समावेशी शिक्षा के सच को बयान करने के लिए काफी है.

यदि हम कुछ स्तरीय सरकारी संस्थाओं को अपवाद मान लें तो यह सहज बोध होता है कि शिक्षा को समावेशी स्वरूप देने के लिए अभी काफी कुछ करना शेष है. और इस दिशा में सबसे अहम सरकारी संस्थाओं के प्रति समाज के प्रबुद्ध व्यक्तियों, सरकारी आलाधिकारियों के साथ-साथ हमारे राजनेताओं की सोच है. इस दृष्टि परिवर्त्तन की दरकार शिक्षा को समावेशी करने के लिए है. वह भी तब, जब राजनीतिक कारणों से नई संस्थाओं को खोलने की कोशिश तो होती है किंतु स्थापित संस्थाओं को विकसित करने का पूरा प्रयास नहीं किया जाता.

डॉ. ललित कुमार
लेखक


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