चिंतन : दलबदल सियासत का हिस्सा

Last Updated 26 Jun 2016 04:51:51 AM IST

दलबदल निंदनीय माना जाता है. संविधान की दसवीं अनुसूची संसद व विधानमंडल के सदस्यों को दल त्याग के कारण सदस्यता के अयोग्य घोषित करती है.




हृदयनारायण दीक्षित

दलबदल राजनीति का चर्चित हिस्सा बनता है.

वामदलों के नेता और कार्यकर्ता प्राय: दलबदल नहीं करते. वे अन्य दलों के प्रतिष्ठित नेताओं को अपने दल में शामिल करने से बचते हैं. चुनाव के दौरान पाला बदल का काम बढ़ता है. बिहार चुनाव के दौरान पाला बदल के दिलचस्प दृश्य थे. अब देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में दलबदल का उत्सव है. बसपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य का पार्टी छोड़ना खासी चर्चा का विषय है.

आमजन हरेक दलबदल को अनैतिक मानते हैं. भारत की संस्कृति में समूह त्याग को अच्छा नहीं माना जाता फिर राजनैतिक क्षेत्र में ऐसा पाला बदल किसी-न-किसी रूप में राजनेता की बेहतर पदस्थिति और प्रतिष्ठा से जुड़ा रहता है. इसलिए दल त्यागी को लाभ और लोभ से ही प्रेरित देखा जाता है. लेकिन सभी मामले ऐसे ही नहीं होते. दलों का गठन राजनैतिक इच्छाशक्ति से होता है. लोकतंत्र एक आदर्श जीवन पद्धति है. सामूहिक विचार-विमर्श लोकतंत्र की आत्मा है. व्यक्ति आधारित दलों में सामूहिक विचार-विमर्श का अभाव होता है. एक व्यक्ति या कुछेक के हाथ में निर्णायक शक्ति होती है. पद प्रतिष्ठा या जिम्मेदारी देने की पारदर्शी नियमावली नहीं होती इसलिए अनेक बार दल त्याग की मजबूरी भी बनती है.

स्वामी प्रसाद मौर्य परिश्रमी राजनैतिक कार्यकर्ता हैं. विधानमंडल में नेता प्रतिपक्ष और कई दफा मंत्री भी पर उनके दल में एकल हाईकमान की इच्छा ही सर्वोपरि है. वे यह बात जानते थे. इसे जानते-मानते हुए ही उन्होंने अनेक प्रतिष्ठित पद पाए. आगे बात नहीं बनी. वे अलग हो गए. वे दलबदल के दोषी हैं और नहीं भी. दोषी इसलिए हैं कि वे इसी एकल हाईकमान वाली व्यवस्था में जानबूझ कर क्यों लम्बे समय तक जुड़े रहे? दोषी इसलिए नहीं हैं कि पदार्थ की तरह हरेक व्यक्ति के उबलने का एक बिंदु होता है.

विज्ञान में इसे थनांक कहते हैं. सहनशीलता की भी सीमा होती है. सहने की सीमा में धीरज की महत्ता है लेकिन राजनीति का व्यवहार और दर्शनशास्त्र का चिंतन भिन्न-भिन्न है. व्यावहारिक राजनीति में धैर्य, प्रतीक्षा और विनम्रता सद्गुण नहीं होते. शायद इसीलिए एक घुटन भरी व्यवस्था का हिस्सा बने रहने के दोषी मित्र स्वामी प्रसाद अपनी सहनशीलता की सीमा के बाद बाहर हो गए. कुछ तो मजबूरियां रही ही होंगी/ कोई यूं ही बेवफा नहीं होता.

सभी दल त्यागी उपयुक्त अवसर पर अपनी घुटन का उल्लेख करते हैं. ऐसा बेजा भी नहीं है. भारतीय दलतंत्र में कोई कारगर शिकायत प्रकोष्ठ नहीं होता. दलतंत्र विकासशील दशा में है. यहां सहानुभूतिपूर्वक व्यथा सुनने के तंत्र का अभाव है. शिकायत और व्यथा को अनुशासनहीनता या महत्त्वाकांक्षा भी मान लिया जाता है. राजनीति केवल विचार आधारित लोकमत के निर्माण का क्षेत्र नहीं रही. डॉ. लोहिया प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ते थे. पराजय पक्की थी लेकिन लोहिया अपने अभिमत को विव्यापी बनाने के लिए ही पराजय वाले क्षेत्र का वरण करते थे. पं. दीनदयाल उपाध्याय ने चुनाव जीतने के लिए सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. दलत्याग बहुत बड़ी घटना नहीं होती. दल छोड़ने वाले बेशक प्रथम द्रष्टया दोषी दिखाई पड़ते हैं लेकिन दल संचालक व्यक्तिवादी हाईकमान भी कम दोषी नहीं कहे जा सकते.



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