शिया-सुन्नी दुश्मनी में फंसा एक और मुल्क

Last Updated 02 Apr 2015 01:18:01 AM IST

मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका शिया-सुन्नी संघर्ष के ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं. यह ज्वालामुखी समय-समय पर फटता रहता है.


शिया-सुन्नी दुश्मनी में फंसा एक और मुल्क

पिछले दो सालों से दुनिया इराक और सीरिया में आईएसआईएस की हिंसा और हैवानियत का तांडव देख रही थी और उससे निपटने के उपाय सोच रही थी कि यमन के ज्वालामुखी में विस्फोट हो गया. पिछले साल सितम्बर में वहां के शिया हौथी विद्रोहियों ने तख्तापलट कर हालात को गरमा दिया, लेकिन सऊदी अरब ने अपने साथी देशों के साथ हौथी बागियों के क्षेत्र पर हवाई हमले करके स्थिति और विस्फोटक बना दी है. अब तक संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कतर, कुवैत और जॉर्डन इस युद्ध में शामिल हुए हैं. मिस्र, पाकिस्तान और सूडान ने भी इसमें सहयोग की इच्छा जताई है. अमेरिका हमले में शामिल नहीं है, मगर वह तकनीकी एवं परामर्श संबंधी सहयोग दे रहा है. अब ईरान अपने मित्र हौथियों के पक्ष में मैदान में उतर सकता है. इसके बाद तो लगता है इस क्षेत्र की खैर नहीं. अब तक दो क्षेत्रीय महाशक्तियां ईरान व सऊदी अरब पर्दे के पीछे रह कर युद्ध लड़ रही थीं. यमन में वे खुलकर सामने आ गई हैं.

यमन का मामला ज्यादा टेढ़ा है. वहां वहुत सी ताकतें एक साथ सक्रिय हैं. वहां स्थानीय सांप्रदायिक संघर्ष के साथ अंतरराष्ट्रीय संघर्ष भी है. दोनों एक-दूसरे को बढ़ावा देते हैं. हालांकि यमन भारत से काफी दूर है मगर वहां का युद्ध भारत के लिए नया सिरदर्द बनता जा रहा है. ताजा लड़ाई का प्रभाव तेल के बाजार पर भी पड़ता दिखता है. सऊदी हमले के साथ कच्चे तेल का भाव डेढ़ डॉलर प्रति बैरल बढ़ गया. यदि संघर्ष यमन में ही केंद्रित रहता है और फैलता नहीं है तो इसके आर्थिक प्रभाव ज्यादा नहीं होंगे, लेकिन हमें महंगे तेल की मार तो झेलनी होगी. दूसरे, यमन में बहुत से भारतीय रोजगार के सिलसिले में रहते हैं. यदि युद्ध उग्र होता है तो उन्हें वहां से निकालना भारत की प्राथमिकता होगी जिसके प्रयास शुरू हो भी गये हैं.

हालांकि सऊदी अरब ने यमन की सीमा पर अपनी सेना तैनात कर दी है, लेकिन वह तुरंत जमीनी युद्ध लड़ेगा इसकी संभावना कम है. यूं भी जमीनी युद्ध अब आउट ऑफ फैशन होता जा रहा है. जब तक संभव हो, हमलावर देश हवाई हमले से काम चलाते हैं. यह ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ वाला मामला है. जैसे  कई पश्चिमी देशों का सैन्य गठबंधन अपने आईएस विरोधी सैनिक अभियान को लंबे समय से  केवल हवाई कार्रवाई तक सीमित रखे हुए है.

सऊदी अरब और उसके साथी देशों के हवाई हमलों से सत्ता पर पकड़ मजबूत करने में लगे हौथियों पर तुरंत कोई असर नहीं पड़ रहा. सऊदी अरब के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय गठबंधन के यमन में हवाई हमले से इस्लामी जगत के लंबे शिया-सुन्नी जंग में उलझ जाने का अंदेशा पैदा हो गया है. शिया चरमपंथी गुट हौथी को ईरान का समर्थन हासिल है. उसके खिलाफ  सुन्नी देशों की ताजा कार्रवाई को ईरानी विदेश मंत्रालय ने यमन की संप्रभुता का उल्लंघन करार दिया है.

आईएसआईएस, हौथी और अलकायदा अपनी कट्टरपंथी विचारधारा के कारण उस पूरे इलाके में हिंसा और आतंकवाद का स्रेत बने हुए हैं. 2011 में अरब देशों में राजनीतिक अस्थिरता शुरू होने के बाद से इराक, सीरिया और लीबिया के बाद यमन चौथा देश है जहां अराजकता के हालात बने हैं. दरअसल, मध्य पूर्व के अन्य देशों की तरह की यमन की भी सबसे बड़ी बीमारी है शिया-सुन्नी दुश्मनी. यमन में 20-25 प्रतिशत शिया और 75 प्रतिशत सुन्नी हैं. पिछले ढाई वर्षों में वहां दूसरे राष्ट्रपति के देश छोड़कर भागने की नौबत आई है. पहले अब्दुल्ला अली सालेह और अब आबिद रब्बो मंसूर हादी. अरब प्रायद्वीप का यह धुर दक्षिणी देश पिछले कई सालों से बुरी खबरों को लेकर ही सुर्खियों में रहा है. अली अब्दुल्ला सालेह की तानाशाही में इसे शांति के कुछ साल जरूर मिले, लेकिन 2011-12 के लोकतंत्र के आंदोलन ने उनकी सरकार को संकट में ला दिया. इसके बाद यमन में कई शक्तियों को अपने लिए अवसर दिखाई देने लगे.

सऊदी अरब को सबसे ज्यादा खतरा हौथी शिया विद्रोहियों से लग रहा है. उनका प्रभाव क्षेत्र सऊदी अरब की सीमा से सटा हुआ है, जहां ईरानी हथियारों की मौजूदगी उसके बर्दाश्त से बाहर है. यमन के पूर्वी और उत्तरी इलाकों में सक्रिय अलकायदा को भी सऊदी सत्ता अपने लिए बड़ा खतरा मानती है, लेकिन इस संगठन के सुन्नी जनाधार को किसी तरह संभाल ले जाने का भरोसा उसे है. हौथी विद्रोहियों ने जिस तेजी से पहले यमन की राजधानी सना और फिर देश की आर्थिक राजधानी अदन पर कब्जा किया है, उससे लगता है उन्हें ईरान के अलावा पूर्व राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह का समर्थन भी प्राप्त है. सबसे बड़ी बात यह कि जिन-जिन इलाकों पर हौथी विद्रोहियों का कब्जा हो रहा है, वहां-वहां यमनी सेना की टुकड़ियां भी उनके साथ हो जा रही हैं. इसके बावजूद हौथियों का रास्ता आसान नहीं है.

आईएस और अलकायदा की बढ़ती ताकत से उत्तर अफ्रीका और पश्चिम एशिया में राजनीतिक अस्थिरता की आशंका बढ़ती जा रही है. इस क्षेत्र में गजब का राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ है. सऊदी अरब सुन्नी शक्ति और ईरान शिया शक्ति के रूप में उभरा है जिनके इर्द-गिर्द सुन्नी और शिया देश व संगठन इकट्टा हो गए हैं. इससे शिया-सुन्नी दुश्मनी ने नया आयाम ले लिया है. यूं तो शिया-सुन्नी दुश्मनी काफी पुरानी है, लगभग उतनी ही पुरानी जितना पुराना इस्लाम है.

बावजूद दोनों अच्छे पड़ोसी की तरह रहते रहे. लेकिन मध्य पूर्व का जनसंख्या संतुलन कुछ ऐसा है कि जहां सुन्नी बहुमत में थे वहां शिया शासक थे और जहां शिया बहुसंख्यक थे वहां सुन्नी शासक रहे. लेकिन तब कुछ तानाशाहों ने इन अंतर्विरोधों को संभाले रखा. परंतु मध्य पूर्व में जब लोकतांत्रिक क्रांति शुरू हुई और तानाशाह हटाए गए, वहां अराजकता का दौर आ गया और कुछ देशों में पुराने झगड़े फिर उभर आए जिनमें एक शिया-सुन्नी दुश्मनी भी थी. इसी उथल-पुथल का फायदा उठा कट्टर सुन्नी संगठन आईएस ने सीरिया व इराक की जमीन पर कब्जा कर अलग राष्ट्र बना डाला. आईएस शियाओं का कट्टर दुश्मन है. इराक, सीरिया व अन्य देशों में अब तक शिया-सुन्नी दुश्मनी लाखों लोगों की जान ले चुकी है. हौथी विद्रोही सुन्नियों पर जुल्म ढा कर मामले को और उलझा रहे हैं. नतीजा, मध्यपूर्व में शिया व सुन्नी जिहाद के बीच टकराव हो रहा है.

ईरानी क्रांति के बाद मुस्लिम जगत के राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं. इसके कारण पहली बार शियाओं में अभूतपर्व आत्मविश्वास आया है. सदियों तक सुन्नियों के छोटे भाई की तरह रहने वाले शिया अब उनके  प्रतिद्वंदी बनकर उभरे हैं और दोनों के बीच की खाई चौड़ी हो रही है. एक और बात कि दुनिया के बाकी इस्लामी देशों में भले सुन्नी बहुसंख्यक हों, लेकिन कई खाड़ी देशों में शिया बहुसंख्यक हैं. बाकी देशों में भी उनकी अच्छी-खासी तादाद है. इसलिए राजनीतिक वर्चस्व के लिए भी उनमें टकराव होता रहता है जिसे ईरान और सऊदी अरब की प्रतिद्वंद्विता हवा देने का काम करती है.

इस क्षेत्र में लगातार विस्फोटक बनती समस्याओं का एक ही समाधान है कि शिया-सुन्नियों के बीच की दुश्मनी खत्म हो. वैसे सऊदी अरब के पैट्रो डालर से दुनियाभर में फैले वहाबी आंदोलन से स्थिति पेचीदा हो गई है. वहाबियों ने उन सभी मुसलमान समुदायों को गैर-मुस्लिम करार दिया है जो इस्लाम में किसी तरह के बदलाव की कोशिश करते हैं. समाधान का एक ही रास्ता है कि शिया-सुन्नी भाईचारा कायम हो. विश्व मुस्लिम समुदाय दोनों पर दबाव डाल उन्हें सहअस्तित्व के लिए मना सकता है ताकि खूनखराबा बंद हो. यह काम आसान नहीं है, मगर असंभव भी नहीं है. यही एक रास्ता है जिससे इस क्षेत्र में शांति और सद्भाव सुनिश्चित किया जा सकता है.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

सतीश पेडणेकर
लेखक


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