बाजारवाद का खिलौना बनते बच्चे
बच्चे फूलों की तरह हैं. ये पेशावर में कुम्हलाएं या बगदाद में या फिर भदोही, शिवकाशी में.
बाजारवाद का खिलौना बनते बच्चे |
इनका कुम्हलाना धरती की भीषणतम त्रासदियों में से एक है. यह शर्मनाक सच है कि कई जगह बच्चों के हाथों में हथियार थमाये जा रहे हैं लेकिन मैं आशान्वित हूं. पेशावर जैसी घटना इसलिए घटती है क्योंकि आतंकियों को अपने अकेले होने का डर है. दुनिया में शांति के लिए करुणा की जरूरत है. करुणा ज्यों-ज्यों दायरा बढ़ाएगी, हम ऐसे बंधन में बंध जाएंगे जो हमारी बुनियादी प्रकृति है, जरूरत है. बच्चे ईश्वर के ज्यादा करीब हैं. उनकी बातें, उनकी सोच अगर हम अपना पाएं तो शांति कभी भंग नहीं हो सकती.
हम लाख विकास की बातें करें पर इस तल्ख सच्चाई को दरकिनार नहीं कर सकते कि दुनिया में बचपन पर चारों खतरे मंडरा रहे हैं. मैंने बाल मजदूरी पर काम करके नोबेल तो पा लिया लेकिन इसे बड़ी सफलता कैसे कह सकते हैं. सफलता तो तभी होगी, जब दुनिया के सारे बच्चों को उनका बचपन हासिल होगा. जब स्कूल के दरवाजे उनके लिए खुले हों. दुनिया में आज भी 16-17 हजार करोड़ बच्चे बाल मजदूरी के दलदल में हैं. अपने देश में भी लाखों बच्चे मानसिक-शारीरिक शोषण का शिकार हैं. बेशक देश में बाल अधिकारों के रक्षण से जुड़े कानून हैं लेकिन या तो वे इतने दोषपूर्ण हैं कि बाल अधिकारों को संरक्षण नहीं दे पा रहे हैं या इन कानूनों का पालन सही तरीके से हो, इस पर निगरानी रखने वाली कोई जिम्मेदार नहीं है. बाधाएं जैसी हो, यह तय है कि ऐसे बच्चों की कमी नहीं जिनका बचपन असमय छीन लिया गया है. सरकारी एजेंसियां अपनी भाषा में इसकी व्याख्या जैसे करें, जो आंकड़े दें पर वास्तव में देश में छह करोड़ बच्चों से काम कराया जा रहा है. उनके मौलिक अधिकारों की बातें कागजों पर ही सीमित हैं.
समाज बच्चों को उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में असफल रहा है. उनकी शिक्षा-दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऐसे कामों में लगाना जारी है जो उनके शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हुआ है. ऐसे कार्य जो बच्चों के बौद्धिक, मानसिक, शैक्षिक, नैतिक विकास में बाधा पहुंचाए- बालश्रम की परिधि में आते हैं. शिक्षा का अधिकार लागू होने के बाद भी हमारी स्थिति इस मोच्रे पर दयनीय है. क्या हमें शर्म नहीं आनी चाहिए कि एक ओर तो हम शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाए हुए हैं जबकि दूसरी ओर रोजाना होटलों में, घरों में, छोटे-छोट उद्यमों में बच्चों को काम करते देखते हैं. बालश्रम के उन्मूलन के लिए 1986 में बने बालश्रम उन्मूलन कानून में कई खामी हैं.
इनमें जोखिम भरे कार्यों में बाल श्रमिकों के कार्य करने पर रोक लगाने को विशेष जगह दी गई है. इस कानून के अनुच्छेदों से यही प्रतिध्वनित होता है कि केवल जोखिम भरे कार्यों में लगे बच्चे ही बाल श्रमिक की परिधि में आते हैं. जबकि सच्चाई यही है कोई भी स्थिति जो बच्चे को कमाने के लिए मजबूर कर रही हो बालश्रम है और ऐसे कार्यों में लगे बच्चे बाल श्रमिक. इनकी संख्या पर लगाम लगना तो दूर बल्कि अब और नए किस्म के बाल श्रमिक सामने आ रहे हैं.
रिएलिटी शो में कार्य करने वाले बच्चों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है. इन शो को देखकर साफ लगता है कि ये बच्चों का भला नहीं कर रहे बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं. बच्चों की चंचलता, उनकी हंसी, उनका भोलापन सभी को बाजार की चीज बना दिया गया है. ऐसे शो भावनाओं को उभारने और इस जरिए अपना बाजार तलाशने में लगे रहते हैं. गौर करने वाली बात है कि ऐसे कार्यक्रमों के जरिए बच्चों में कलात्मकता और रचनात्मकता का विकास नहीं बल्कि शॉर्टकर्ट तरीके से नेम-फेम पाने की भावना जन्म ले रही है. आज बच्चों को चकाचौंध में लाकर उन्हें बाजारवाद का खिलौना बना दिया जा रहा है.
अपने मुल्क में बच्चों के साथ रोजाना शोषण, अपराध, यातनाओं की घटनाएं सामने आती हैं. बच्चों का खरीद फरोख्त सामान्य बात होती जा रही है. अभी यह नशीले पदाथरे की तस्करी और अवैध हथियारों की खरीद फरोख्त के बाद काली कमाई का तीसरा सबसे बड़ा जरिया बन गया है. इसके पीछे सस्ते श्रमिक की बढ़ती मांग, प्रशासनिक सुस्ती, गैर कानूनी प्लेसमेंट एजेंसी, भ्रष्टाचार जैसी कई वजहें हैं. बाल श्रमिकों ने बेरोजगारी बढ़ाई है क्योंकि इनसे ज्यादातर मामलों में जबरिया काम कराया जाता है, इसलिए मजदूरी बहुत कम मिलती है. ये सस्ते ही नहीं बल्कि बगैर किसी प्रतिरोध के लंबे समय तक काम करने वाले होते हैं. ऐसे में वयस्क लोग बेरोजगार बने रहते हैं.
आज अपने देश में हर घंटे करीब 10 बच्चे लापता हो रहे हैं. गुमशुदगी को लेकर हमने सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया. मामले की गंभीरता देख कोर्ट ने सरकार को ठोस योजना बनाने का निर्देश दिया लकिन ये अपराध आज भी नहीं रुके हैं. तमाम अध्ययनों से इसकी पुष्टि हो चुकी है कि बाल श्रम वयस्क बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा और बीमारियों के साथ-साथ बच्चों की तस्करी को भी बढ़ावा दे रही है. यह देश की आर्थक तरक्की में भी बाधक है. इससे हम मानव संसाधन के बेहतर प्रयोग पर भी अडंगा लगा रहे हैं. बालश्रम का समूल विनाश किए बगैर बच्चों को सही आजादी नहीं दी जा सकती.
इस सच को भी समझना होगा कि गरीबी के कारण बालश्रम नहीं बढ़ रहा बल्कि बालश्रम के कारण गरीबी बढ़ रही है. हमें हर बच्चे को शिक्षा देने की दिशा में आगे बढ़ना होगा. इससे बालश्रम की समस्या स्वत: दूर हो जाएगी. दुनिया के प्रमुख देशों की तरह भारत में भी मुफ्त शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है, परंतु इससे देश के सारे बच्चे जुड़ें, ऐसी स्थिति अभी नहीं बन पाई है. ऐसी स्थिति बनानी होगी तभी बच्चे बच्चे रह पाएंगे. वास्तव में गरीबी व बाल मजदूरी के बीच कोई संबंध नहीं. हम इसकी बात कर केवल समस्या को और गहरा करने में जुटे हैं. मैं 1980 से बाज मजदूरी के खिलाफ अभियान में जुटा हूं. 80 हजार से ज्यादा बच्चे हमने मुक्त कराए लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि इसकी जड़ में गरीबी है. नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद तो हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गई है.
विकसित और हमारे देश में भी आम सोच यह है कि बाल श्रम पिछड़े और विकासशील देशों की समस्या है जबकि बाल मजदूरी पूरी दुनिया की समस्या रही है. हालांकि भारत में हुए संघर्ष से ही इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा समझा गया. प्रत्येक देशवासी का कर्त्तव्य है कि वह भारत के माथे पर पड़े इस कलंक को मिटाए. अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो दुनिया से इस समस्या को उखाड़ फेंकने में आसानी होगी. सभी जुट जाएं तो बड़ी दिखने वाली इस समस्या को खत्म करना असंभव नहीं. सूचना और ज्ञान की आर्थिकी के युग में भी अगर हम बच्चों को उन्मुक्त नहीं रख पा रहे तो यह हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति व दूरदर्शिता के अभाव को रेखांकित करता है. उम्मीद है कि निकट भविश्य में हालात बेहतर होंगे.
(नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के मुखिया हैं)
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