खतरनाक होती ई-कचरे की समस्या

Last Updated 15 Sep 2014 04:30:34 AM IST

मानव इतिहास में अब वह मौका आने ही वाला है जब दुनिया में मोबाइल फोनों की संख्या इंसानी आबादी से ज्यादा होने जा रही है.




खतरनाक होती ई-कचरे की समस्या

हाल में इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) ने वैश्विक स्तर पर किए अपने अध्ययन में निष्कर्ष निकाला है कि साल के अंत तक मोबाइल फोनों की संख्या छह अरब से बढ़कर 7.3 अरब हो जाएगी जो इंसानी आबादी के आंकड़े यानी सात अरब को पीछे छोड़ देगी. यह एक आंकड़ा एक तरफ यह आश्वस्ति जगा रहा है कि अब गरीब देशों के नागरिक भी जिंदगी में बेहद जरूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है. यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-वेस्ट का.

आईटीयू के मुताबिक, भारत, रूस, ब्राजील समेत करीब सौ देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है. रूस में अब करीब 25 करोड़ मोबाइल हैं जो वहां की आबादी से 1.8 गुना ज्यादा हैं. ब्राजील में 24 करोड़ मोबाइल हैं जो आबादी से 1.2 गुना ज्यादा हैं. इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी कमोबेश यही स्थिति बन गई है. पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे अनजाने मोड़ पर ले आई है जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है. हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है.

जैसे पिछले ही वर्ष (2013 में) इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आंकड़ा पेश करके बताया था कि भारत हर साल आठ लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है. इस कचरे में देश के 65 शहरों का योगदान है, पर सबसे ज्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है. हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है. उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षो बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं.

निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है. साइंस की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है. कंप्यूटर, मोबाइल फोन और इन जैसी तमाम अन्य चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है. लेकिन इन सारी चीजों का इस्तेमाल करते वक्त इनसे पैदा होने वाले खतरों को लेकर एक दुविधा भी कायम है. दुविधा यह है कि हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पिंड छुड़ाएगा, तो ई-वेस्ट की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा. यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज्यादा बड़ी है क्योंकि कबाड़ में बदलती ये चीजें ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रही हैं. इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए हैं और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं. जाहिर है, हमारे लिए चुनौती दोहरी है. पहले तो हमें देश के भीतर ही पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-वेस्ट के सतत प्रवाह से निपटना है.

हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है. विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं. यदि हम इस तरह के विषैले इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ की विश्वव्यापी समस्या की तरफ एक नजर तो दौड़ाएं, तो पता चलेगा कि क्यों हमें ऐसे व्यापार से मिलने वाली पूंजी से मुंह फेरना चाहिए और क्यों हमें अपनी संचार क्रांति और आधुनिक विकास की बाबत कुछ देर रुक कर सोचना चाहिए.

ई-कबाड़ पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है. मोबाइल फोन की ही बात करें तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते हैं. सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी अपने बूते छह लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है. इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं. कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में शीशा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है. जल-जमीन यानी हमारे वातावरण में मौजूद ये खतरनाक रसायन कैंसर आदि कई गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं.

समस्या इस वजह से भी ज्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीजें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं. पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस के अनुसार जिस ई-कबाड़ की रीसाइक्लिंग पर यूरोप में 20 डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है. भारत, बांग्लादेश, वियतनाम और चीन आदि देश पुराने जहाजों से लेकर खराब हो चुके कंप्यूटरों, मोबाइल फोनों, लैपटॉप-कंप्यूटर, बैटरियों, कंडेंसर, कैपिसिटर्स, माइक्रोचिप्स, सीडी, फैक्स व फोटोस्टेट मशीनों का कबाड़ अपने यहां मंगाते हैं, ताकि उनसे निकाली गई चीजों से धन कमाया जा सके. ऐसे कबाड़ को जलाकर या फिर तीक्ष्ण रसायनों में डुबोकर उनमें से सोना, चांदी, प्लेटिनम आदि धातुओं को निकाला जाता है और फिर उन्हें रीसाइकिल किया जाता है. इससे हवा-पानी और जमीन में प्रदूषण घुलने के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य पर भी बड़ा विपरीत असर पड़ता है. आधुनिक होते समाज के लिए यह इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ चिंता नहीं पैदा करता, यदि यह पर्यावरण में विघटित हो जाता. परंतु यह ई-कबाड़ चूंकि आसानी से विघटित नहीं होता है, इसलिए समूचे पर्यावरण पर घातक असर डालता है.

वैसे तो हमारे देश में ई-कबाड़ पर रोक लगाने वाले कानून हैं. लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने के कारण अकेले दिल्ली के सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश में आने वाले ई-कचरे का 40 फीसद हिस्सा रीसाइकिल किया जाता है. इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बनाने वाली कंपनियां अपने उपभोक्ताओं से खराब हो चुके सामानों को वापस लेने की जहमत नहीं उठाती हैं क्योंकि ऐसा करना खर्चीला है और सरकार की तरफ से इसे बाध्यकारी नहीं बनाया गया है. इसी तरह उपभोक्ता भी सजग नहीं है कि खराब थर्मामीटर से लेकर सीएफएल बल्ब और मोबाइल फोन आदि को यूं ही कबाड़ में फेंक देना कितना खतरनाक है. हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर न रह जाए, इसलिए सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की जरूरत है, अन्यथा यह हमारे ही गले की फांस बन जाएगी.

अभिषेक कुमार सिंह
लेखक


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