परत दर परत: अब सत्ता से उपवास का समय
अब यह लगभग निश्चित हो चला है कि अगले विधानसभा चुनाव में वामपंथियों के हाथ से सत्ता जानेवाली है। नगर निकाय चुनाव में मुंह की खाने के बाद सीपीएम के एक अधिकारी ने इस तरह के आंकड़े पेश किए हैं
![]() |
राजकिशोर
जिससे साबित होता है कि इस चुनाव में पार्टी को मिले कुल वोटों और वोट प्रतिशत में कमी नहीं आई है, बल्कि इजाफा हुआ है। वे अपने आंकड़ों की माला पहन कर नाचते-गाते रहें, इससे इस सर्वसम्मत अनुमान में रत्ती भर फर्क नहीं पड़नेवाला कि प. बंगाल की सत्ता में वामपंथियों के श्रेष्ठतम दिन बीत चुके हैं और अब उन्हें विपक्ष में बैठने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।
कायदे से, संसदीय लोकतंत्र में मार्क्सवादियों की सही जगह विपक्ष में ही है। जब तक क्रांति की संभावना चरितार्थ नहीं होती, यही उनकी स्थायी जगह भी है। लेकिन भारत के मार्क्सवादियों ने सत्ता में आते ही सत्ताधारी दल की तरह आचरण करना शुरू कर दिया। यही उनके पतन का मुख्य कारण है।
मार्क्सवादी सत्ता के सुख और घमंड में समग्र परिवर्तन का अपना लक्ष्य भूल बैठे और राज्य स्तर पर सत्ता के जो दो-तीन टुकड़े उनकी हथेली पर आए, उसी से आत्ममुग्ध हो बैठे। शुरू में उन्होंने सत्ता का दुरूपयोग कम किया, उपयोग ज्यादा। बाद में उपयोग कम और दुरूपयोग ज्यादा करने लगे। वे केरल और त्रिपुरा में सत्ता में आते-जाते रहे, क्योंकि इन दो राज्यों में इनका राजनीतिक विकल्प मौजूद था। पश्चिम बंगाल में इनकी सत्ता 1977 से अबाधित चली आ रही है, क्योंकि इस राज्य में उनका कोई राजनीतिक विकल्प मौजूद नहीं था।
वामपंथ के प्रति अपने परोक्ष प्रेम के कारण और इसलिए भी कि संकट के समय वामपंथियों का समर्थन ही कांग्रेस को बचाने के लिए आगे आता रहा है, न इंदिरा गांधी, न राजीव गांधी की, न नरसिंह राव की और न ही सोनिया गांधी की कांग्रेस ने प. बंगाल में कांग्रेस को सशक्त बनाने की कोशिश की। सबने मान लिया कि वहां कांग्रेस को अपनी खोई हुई जमीन वापस लेने की कोई जरूरत नहीं है। ममता बनर्जी काफी समय तक कांग्रेस में ही रहीं। उनमें जान है और जज्बा भी। उन्होंने कांग्रेस को जिंदा करने की बहुत कोशिश की। अगर कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने ममता बनर्जी को प. बंगाल का शीर्षस्थ नेता बनने दिया होता, तो वामपंथी बहुत पहले ही सड़क पर आ गए होते। कांग्रेस को यह स्वीकार नहीं था। इसीलिए ममता बनर्जी को अपनी अलग पार्टी बनानी पड़ी। तभी से सफलता की छोटी-छोटी सीढ़ियां चढ़ते हुए वे आज इस हैसियत में आ सकी हैं कि प. बंगाल की मुख्यमंत्री बनने का उनका ख्वाब पूरा होता हुआ नजर आ रहा है।
ऐसी नाजुक स्थिति में प. बंगाल के वामपंथियों का फर्ज क्या बनता है? यह तो वे भी स्वीकार करेंगे कि सत्ता भ्रष्ट करती है और वह जितने अधिक दिनों तक जारी रहे, उतनी ही गहराई से भ्रष्ट करती है। कांग्रेस में भ्रष्टाचार की कीड़ा इतने गहरे तक अपनी जगह बना सका तो इसीलिए कि वह बहुत दिनों तक एकछत्र सत्ता का सुख भोगती रही। इससे उसका दायित्व बोध कम हो गया और सुखवादिता बढ़ गई। अगर पचास और साठ के दशक में ही कांग्रेस के सामने सशक्त विपक्ष मौजूद होता तो उसका पतन इतनी शीघ्रता से नहीं हुआ होता। प. बंगाल के वामपंथियों के साथ भी यही घटना हुई है। उन्होंने सत्ता का सुख इतना भोगा, इतना भोगा कि अब सत्ता को भोगने की उनकी क्षमता ही चुक गई है। पुराने जमाने के लोलुप और ऐयाश जमींदारों और बादशाहों की तरह वे अपनी स्वाभाविक शक्ति और प्राकृतिक ऊर्जा खो बैठे हैं।
अब कुछ समय का उपवास ही उनके स्वास्थ्य को बहाल कर सकता है। उपवास का श्रेष्ठतम तरीका यह है कि आप स्वेच्छा से और गंभीरतापूर्वक उसका वरण करें। तभी आप उपवास के नियमों का कड़ाई से पालन कर सकेंगे और रोगों से लड़ सकते हैं। इसे ही प्राकृतिक चिकित्सा कहते हैं। जो लोग यह बुद्धिमानी नहीं दिखा पाते, प्रकृति खुद उनके उपवास का इंतजाम कर देती है। बीमारियों के कारण खाना खा पाना कठिन हो जाता है और कमजोरी से रोगी छटपटाता रहता है। तब चिकित्सक उनका इलाज करता है और सामान्य भोजन नहीं, पथ्य ग्रहण करने की सलाह देता है।
मुद्दे की बात यह है कि प. बंगाल के वामपंथी कौन-सा विकल्प चुनना चाहते हैं? एक विकल्प है कि विधानसभा के चुनाव में पराजित हो कर वे सड़क पर आ जाएं। इससे उनके अहंकार को चोट लगेगी और वे अगले पांच साल तक तृणमूल कांग्रेस से लड़ते-झगड़ते रहेंगे। राजनीति की मौजूदा शैली, दुर्भाग्य से यही है। इससे प. बंगाल की जनता का कोई भला नहीं होगा। दूसरा विकल्प यह है कि वामपंथी इसी वक्त स्वेच्छा से सत्ता छोड़ दें और पांच वर्ष का उपवास ग्रहण करें। पांच वर्ष की इस अवधि का उपयोग वे अपनी-अपनी पार्टी का परिशोधन करने में करें। वे अपने लक्ष्यों को फिर से परिभाषित करें, अपने काम की शैली को बदलें, जनता के पास जाकर प्रायश्चित करें तथा पांच वर्ष बाद नए संकल्पों के साथ सत्ता में आने की इच्छा करें। इससे प. बंगाल की राजनीति में गहरा और सकारात्मक परिवर्तन आएगा और हो सकता है, तब वामपंथी दल राष्ट्रीय राजनीति में भी बेहतर भूमिका निभा सकें। अभी तो वे किसी क्षयशील धूमकेतु की तरह आकाश में भटक रहे हैं।
क्या किसी राजनीतिक दल से इस दूसरे विकल्प को स्वीकार करने की उम्मीद बहुत ज्यादा है? वर्तमान वातावरण में तो यह एक स्वप्न की तरह लगता है, लेकिन इसीलिए कि वर्तमान राजनीति में अच्छे स्वप्न देखने की क्षमता नहीं रह गई है। जब यह क्षमता थी, तब साम्यवादी और समाजवादी दल अस्तित्व में आए थे। उन्होंने अपने-समय में राजनीति की धारा को बहुत प्रभावित किया। इसलिए पतन के मौजूदा दौर को समाप्त करने के लिए स्वप्नशील होने की जरूरत फिर पैदा हो गई है। कांग्रेस इक्कीसवीं सदी के नए भारत का जो स्वप्न देख और दिखा रही है, उसकी विडंबनाएं सामने आ चुकी हैं। वह भयानक गरीबी और विषमता के बीच समृद्धि के कुछ अश्लील द्वीप पैदा करेगा। वामपंथी चाहें तो देश का मिजाज बदल सकते हैं। पर इसके पहले उन्हें अपना मिजाज बदलना होगा।
Tweet![]() |