सूरीनाम में मिले थे विजयदान देथा

Last Updated 13 Nov 2013 01:19:48 AM IST

चौं रे चम्पू! तू का उधेड़बुन में ऐ रे?


अशोक चक्रधर (फाइल फोटो)

-चचा, अक्टूबर का अंत और नवम्बर का प्रारम्भ हिन्दी साहित्य पर बहुत भारी पड़ा है. अब राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा भी चले गए. उनके कथा-साहित्य और उसके आधार पर बनी फिल्मों से तो मैं मिलता रहा, लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनसे पहली व अंतिम बार सूरीनाम में मिला. रह-रह कर मुझे एक बात का मलाल हो रहा है.

-कैसौ मलाल?
-अरे, पहले ऑप्टीकल फिल्म वाले कैमरे होते थे. छत्तीस फोटो की एक रील आती थी. रील धुलती थी. सबका प्रिंट निकलता था. उन्नीस सौ निन्यानवै में छठे विश्व हिंदी सम्मेलन में मैंने अपने ओलम्पस कैमरे से बारह रील खींची थीं. सभी मित्रों को फोटो भेजे थे. सन दो हजार के लगभग डिजिटल कैमरा आने लगे. रील का झंझट नहीं रहा. छत्तीस की सीमा नहीं रही. मैंने दो हजार एक में अमेरिका से एक डिजिटल कैमरा खरीदा था. दो हजार तीन में सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए सूरीनाम गया. उस कैमरे के भरोसे संवाददाताओं की छोटी सी टीम बनाकर हम वहां प्रतिदिन \'सम्मेलन समाचार\' नाम से न्यूज बुलेटिन निकालते थे. प्रिंटर था, तो छाप लेते थे. स्टैपलर-टेप थे तो बाइंड भी कर लेते थे.

-कौन बांटतौ ओ?
-खुद बांटते थे. मीडिया केन्द्र में छोटा सा कोना हथियाया था, जहां मैं अपने लैपटॉप और प्रिंटर के साथ लगा रहता था. खुद टाइप करता, खुद पेज सैटिंग. आते-जाते लोग देखते थे कि यह दिन-रात यहीं बैठा रहता है. लंच-डिनर के लिए भी नहीं जाता. चचा, मैं प्राय: नहीं ही जा पाता था. अनिल जोशी, घनशाम दास मेरे मुख्य संवाददाता थे. मैं बस फोटो खींचने या अपने सत्रों में सहभागिता के लिए ही जा पाता था.

-तौ देथा कहां मिले?
-मीडिया केन्द्र में ही. मैं काम में लगा था. अचानक पीछे से आवाज आई, \'खाते-पीते भी हैं कि नहीं?\' मैं काम में लगा रहा. फिर बोले, \'मैंने बुलेटिन देखा, अच्छा लगा. मुझे फिल्म गुलाबड़ी भी अच्छी लगी थी, जो तुमने यादवेन्द्र शर्मा चंद्र की कहानी पर बनाई थी.\' मैंने उन्हें तत्काल नहीं पहचाना. परिचय हुआ तो खड़े होकर उन्हें धन्यवाद दिया और बताया कि मेरी भोजन-व्यवस्था के लिए ये खड़े हैं, रमेश कर्ताराम. यहां भोजन समाप्त हो जाता है तो मेरे लिए स्थानीय रोटी-भाजी की पुंगी लेकर आते हैं. इनके पिता यहां हिन्दी के शिक्षक थे, उनके नाम पर सूरीनाम में कर्ताराम स्ट्रीट भी बनी है. देथा जी ने एक गोल ब्रैड अपने झोले से निकालकर मुझे दी. वाह क्या स्वाद था! चाय के साथ खाई. फिर देथा जी की दिलचस्पी कर्ताराम में हुई. कर्ताराम के साथ वे सूरीनाम में आसपास घूमने भी गए. बहरहाल, मैं उनसे खूब देर तक गपियाना चाहता था.  

-जे ई मलाल ऐ का?
-ये तो है ही, पर मलाल इस बात का चचा कि मैं अपने वादे के अनुसार उनका चित्र नहीं भेज पाया. छायाचित्र अगर ऑप्टीकल रोल से खींचे गए होते तो निश्चित रूप से भेजता, लेकिन डिजिटल फोटो तो हार्ड ड्राइव में कैद होकर रह जाते हैं. अब खोजा तो बहुत जल्दी मिल गया. दस साल पहले किया हुआ वादा पूरा नहीं कर सका. भूल गया. लेकिन विजयदान देथा को कहानीकार के रूप में जमाना भुला नहीं सकेगा.

मैंने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा था, \'चला-चली की होड़ में वे भी चले जाएंगे अनुमान किसे था? लो चले गए विजय दान देथा! वे कहानियां निकालते थे मिट्टी से, खेत से, मरुथल की रेत से. किलों से कंगूरों से, महलों से, घूरों से, चूनर से गोटे से, बंद परकोटे से. उन्होंने जाने कहां-कहां से कहानियां निकालीं, पर उन्हें कहानियों से कोई नहीं निकाल सकता. न दिल से.\' अद्भुत व्यक्ति थे. अपने गांव में रहकर साहित्य की एकांत साधना करने वाले ऋषि के समान लगे रहे पूरी उम्र. राजस्थानी भाषा पर प्राण न्यौछावर करते थे. आज उनका लिखा हुआ हिन्दी के साथ अनेक भाषाओं में उपलब्ध है.

-तौ हमैंऊ दइयौ उनकी कोई किताब!

अशोक चक्रधर
लेखक एवं व्यंगकार


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