ओपिनियन पोलम पोल

Last Updated 12 Nov 2013 01:08:08 AM IST

निम्नलिखित निबंध को निबंध प्रतियोगिता में पहला स्थान मिला है. निबंध प्रतियोगिता का विषय था- ओपिनियन पोल.


ओपिनियन पोलम पोल (फाइल फोटो)

एक होती है ओपिनियन जो आम तौर पर सबके पास हो सकती है, पर वैल्यू सबकी ओपिनियन की नहीं होती. वैल्यू इन दिनों प्याज की है. यद्यपि वह ओपिनियन नहीं है, उस पर तरह-तरह की ओपिनियन रखी जा रही हैं.

छोटे आदमी की छोटी ओपिनियन, बड़े आदमी की बड़ी ओपिनियन. छोटा बंदा प्याज के भावों पर ओपिनियन रखता है, हाल में आयी खबरों के हिसाब से बड़े-बड़े संगीतकार, गायक ओपिनियन रख रहे हैं कि तमाम पद्मश्री, पद्मविभूषण पुरस्कार उनकी बहन, उनके बेटों को मिल जाएं. छोटा आदमी प्याज की चिंता में अपनी हैसियत को और छोटा करता जाता है, बड़ा आदमी अपने सारे रिश्तेदारों को भी पद्मविभूषित करवा कर अपनी हैसियत बढ़ाता है.

ओपिनियन है साहब, सबको रखने का हक है. ओपिनियन है, कोई अक्ल थोड़े ही है कि हरेक पास न हो सके. कई आइटम तो दरअसल सिर्फ ओपिनियन रखने भर के हो गये है, उनको वास्तव में रखना अफोर्ड नहीं किया जा सकता है. जैसे, प्याज के भावों पर ओपिनियन ही रखिये, प्याज रखने के दिन तो चले गये. प्याज जमाखोर रखते हैं. पब्लिक ओपिनियन रखती है कि प्याज महंगा है. ओपिनियन हर कोई रखे, लोकतंत्र हरेक को यह छूट देता है, पर प्याज रखने की छूट लोकतंत्र में सबको नहीं है. मिनिस्टरों के दोस्त जमाखोरों, कारोबारियों को ही यह छूट हासिल है.

ओपिनियन ही ओपिनियन मिल तो लें, वो वाली ओपिनियन लें, ये वाली भी लें. अरे, अरे थोड़ी सी वह भी लें न. ओपिनियन पोल का बाजार सज लिया है. जिसकी सरकार बन रही है, ओपिनियन पोल में वह ओपिनियन को लोकतंत्र का आधार मान रहा है, जिसकी नहीं बन रही है, वह ओपिनियन में पोलम पोल देख रहा है.

पुराने वक्त में एक बार ही सरकार बनती थी, चुनावों के बाद.

अभी तो चार-छह बार सरकारें चुनाव  से पहली ही बन लेती हैं. थैंक्स टू ओपिनियन पोल्स. फलां ओपिनियन पोल के हिसाब से वो सरकार, ढिकां ओपिनियन पोल के हिसाब से वह सरकार. सरकार एक बननी है, पर ओपिनियन पोल से आठ-दस सरकारें बनने का इंतजाम हो जाता है.

तरह-तरह के ओपिनियन-पोल कई बार कई कैंडीडेट्स में इतनी हवा भर देते हैं कि अगला सोचने लगता है कि पांच-सात बार तो पहले ही जीत लिये हैं, अब क्या जरूरत है, सच में चुनाव अभियान में लगने की. ओपिनियन का कारोबार इन दिनों पोल-पट्टी का कारोबार हो लिया है.

कुछ दिनों में ऐसा न हो कि महंगाई का मुकाबला ओपिनियन पोल से ही किया जाने लगे कि फलां पार्टी के सत्तर परसेंट नेता चाहते हैं कि सस्ताई हो. देश में सस्ताई को सबसे ज्यादा चाहनेवाली पार्टी कौन-हमारी पार्टी, ओपिनियन पोल ने बताया है. इस तरह के सर्वे भी जल्दी आना शुरू हो सकते हैं. ओपिनियन से ही काम हो लेंगे, हमारी पार्टी चाहती है कि आलू दस रुपये के सौ किलो मिलें और प्याज एक रुपये के पचास कुंतल. लो जी, हमारी पार्टी के नब्बे परसेंट नेता चाहते हैं कि सस्ताई हो जाये, तो हमें वोट दिया जाये.

रिजल्ट पर नहीं, चाहतों पर वोट दिया जाये.

एक नेता से मैं कह रहा था कि तुम्हारा सारा काम ही पोल-पट्टी का है, नार्मल पोल-पट्टी हो या ओपिनियन की पोल-पट्टी हो. उसने उलट-डांटा कि लेखकों-साहित्यकारों से ज्यादा पोल-पट्टी का काम तो किसी का नहीं है. एक मठाधीश-लेखक अपने झोले से निकालकर अपने चंपू से लेखकों को कालजयी घोषित कर रहा था, दूसरा लेखक किसी सूची से तीसरे-चौथे लेखक का नाम काटकर अपने अपने छठे-सातवें चेले का नाम बतौर सुपर विद्वान लिख रहा था.

अब बताइए, मैं किस मुंह से कहूं कि ओपिनियन का काम पोलम-पोल है, मेरा लेखन का काम तो उससे बहुत ही ज्यादा पोलम-पोलवाला है. नहीं क्या.

आलोक पुराणिक
लेखक एवं व्यंगकार


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