रक्षाबंधन और संस्कृत की कड़ी

Last Updated 21 Aug 2013 12:16:07 AM IST

देश में अनेक पर्व, त्योहार, उत्सव, दिवस आदि परम्परागत रूप से समुदाय, समाज और सांस्कृतिक एकता के लिए उमंग, उल्लास तथा उत्साह के साथ मनाये जाते हैं.


रक्षाबंधन और संस्कृत की कड़ी

इनमें सावन की पूर्णिमा तिथि को मनाये जाने वाले ‘राष्ट्रीय एकता के महापर्व रक्षा बन्धन’ का विशिष्ट महत्व है. इस अखिल भारतीय पर्व के ही अवसर पर ‘राष्ट्रीय संस्कृत दिवस’ मनाये जाने की परिकल्पना भारत सरकार ने दशकों पहले अवधारित की है जिसके ज्ञान एवं मान से अधिकतर देशवासी वंचित हैं. संस्कृत दिवस को रक्षा बन्धन के अवसर पर मनाये जाने की धारणा इस आधार पर बनी थी कि ‘यह ऐसी भाषा है जो अपनी लय व भावबोध से सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधती है.’ देश में सर्वाधिक बोली तथा समझी जाने वाली हिन्दी भाषा की तो यह जननी है ही, भारत की अन्य सभी प्रमुख भाषाओं ने अपनी ऊर्जा के स्वर व उच्चारण के लिए तत्व तथा लय संस्कृत से ही प्राप्त की है.

इसका प्रमाण सुदूर उत्तर में कश्मीरी, डोंगरी से लेकर असमिया, उड़िया, बांग्ला, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, तमिल, तेलुगु आदि क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं में संस्कृत शब्दों की बहुतायत उपस्थिति है. लिपि का अन्तर छोड़ दें तो सुनते हुए यह आभासित होता चलता है कि हिन्दी पट्टी के अतिरिक्त देश की सभी भाषाएं संस्कृत की बहनें हैं. भाषा वैज्ञानिक मानते हैं कि संस्कृत ही सभी आर्य भाषाओं की जननी है.
कहा जा सकता है कि रक्षा बन्धन पर ‘संस्कृत दिवस’ मनाये जाने का विचार राष्ट्र को एकात्मकता की कड़ी में पिरोने का महत्वपूर्ण उपक्रम रहा है.

इस दृष्टि से धन्य है भारत देश जहां जन मानस को पवित्र करने वाली व सुरुचिपूर्ण-सुखद भावों को उत्पन्न करने वाले शब्दों के समूह को जन्म देने वाली ऐसी भाषा सुशोभित है जिसे देववाणी की प्रतिष्ठा प्राप्त है. देश के उपलब्ध समस्त साहित्य में संस्कृत का साहित्य सर्वश्रेष्ठ एवं सुसम्पन्न है. भारत ही नहीं, विदेश में भी इस भाषा की प्रतिष्ठा का मुख्य कारण इसका समृद्ध साहित्य व इसकी कर्णप्रिय ध्वनि है. ‘संस्कृत ज्ञान सम्पन्न, सभ्यता-संस्कृति से अनुशासित, मधुर एवं सरल भाषा है.

पाश्चात्य के सर विलियम जोंस जैसे भाषाविदों ने भी माना है कि ‘यह ग्रीक, लैटिन इत्यादि भाषाओं से भी प्राचीन है.’ देवनागरी लिपि में लिखे जाने वाले इसके वर्तनी-वर्ण-अक्षरों और उनसे बनने वाले शब्दों के उच्चारण में प्राय: कोई आभासी अन्तर न होने के कारण संस्कृत को आज जन-जीवन के सबसे महत्वपूर्ण साधन-संगणक (कम्प्यूटर) की महत्वपूर्ण भाषा के रूप में चुना गया है जिस पर जर्मनी में काफी अनुसंधान-कार्य हो रहा है. ध्यातव्य है कि अत्याधुनिक और विराट मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्रों के लिए तो प्रारम्भिक सोच-विचार का आधार ही संस्कृत में विरचित वेद व उनकी संहिताएं हैं.

संस्कृत भाषा का साहित्य अत्यन्त विशाल और व्यापक है. यह गद्य, पद्य और चम्पू तीनों रूपों में मिलता है जिसमें तत्कालीन समाज का प्रतिबिम्ब दर्शित है. विश्व का सर्वप्रथम ग्रन्थ- ऋग्वेद इसी भाषा में है. इसके अतिरिक्त यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद भी संस्कृत की महान रचनाएं हैं. शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द ज्योतिष, वेदांग-न्याय, वैशेषिक सांख्य योग, वेदांग मीमांसा, आस्तिक दर्शन, चार्वाक, जैन, बौद्ध, नास्तिक दर्शन सब इसी भाषा में सर्वप्रथम आये. उपनिषद, स्मृतियां, सूक्त, धर्मशास्त्र, पुराण, महाभारत, रामायण इत्यादि से इसके नि:सीम विस्तार का पता चलता है.

सभी साहित्य विषयानुरूप संस्कृत के सरल और क्लिष्ट रूप प्रकट करते हैं. वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, दंडी, सुबन्धु, बाण, कालिदास, अघोष, हर्ष, भारवि, माघ और जयदेव आदि कवि, नाटक व गद्यकार इसके गौरव को सिद्ध करते हैं. पाणिनि जैसे व्याकरणविद विश्व की अन्य भाषाओं में देखने में नहीं आते हैं. संस्कृत सुनिश्चित व्याकरण वाली भाषा है. यह नियम इसकी रचना में आद्योपान्त चलता है. देश में आज पहले से भी अधिक लोकप्रिय श्रीरामचरित मानस का आधार ‘रामायणं’ व महाभारत के साथ ही समस्त उपनिषद, अट्ठारह पुराण और अन्य महाकाव्य, नाटक आदि इसी भाषा में लिखे गए हैं.

संस्कृत का गौरव (उसका) अनेक प्रकार के ज्ञान का आश्रय होना और (उसकी) व्यापकता किसी की दृष्टि का अविषय (से छिपा) नहीं है. संस्कृत के गौरव को दृष्टि में रखकर आचार्य प्रवर दण्डी ने ठीक ही कहा है- ‘‘संस्कृतम्  नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभि:’ (अर्थात संस्कृत को महर्षियों ने ईश्वरीय वाणी कहा है.)  इसके गद्य और पद्य में लालित्य, भाव-बोध की सामर्थ्य तथा अनुपम श्रुति-माधुर्य है.

चरित्र निर्माण की जैसी उत्तम प्रेरणा संस्कृत-साहित्य देता है, वैसी किसी अन्य साहित्य में दुर्लभ है. संस्कृत साहित्य में मूलभूत मानवीय गुणों की जैसी विवेचना की गयी है, वह अन्यत्र अप्राप्य है. दया, दान, पवित्रता, उदारता, ईर्ष्या रहित स्वभाव, क्षमा आदि की प्रेरणा निश्चित ही संस्कृत-साहित्य के अध्ययन से मिलती है. वेद-व्यास के अलावा आदिकवि वाल्मीकि, कविकुल-गुरु  कालिदास और भास भारवि, भवभूति आदि महाकवि अपने कालजयी ग्रन्थ रत्नों द्वारा ही असंख्य पाठकों के मानस में विराजमान हैं.

भारतीय धर्म की तरह ही संस्कृत भी समस्त भारतीयों की सबसे बड़ी निधि है. यही भाषा शाखा-प्रशाखा रूप में प्रान्तों में उनकी भाषाओं में मिल गयी है. आज कुछ धर्मान्ध राजनीतिक भावना से प्रभावित हो भारत की खंडता के अभिलाषी हो गये हैं. कारण है उनका संस्कृत के प्रति अज्ञान. अगर वे समझें तो उनका दृष्टिपटल खोलने के लिए संस्कृति का सिर्फ एक सूक्त पर्याप्त है- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.’ (जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है) संस्कृत के बिना एकता-अखंडता का पाठ अधूरा है.

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘संस्कृत भाषा भारत की निधि है. इसकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वतंत्र भारत पर आ पड़ा है.’ इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए कि राष्ट्र की एकता, गौरव, अखंडता तथा सांस्कृतिक एकता को भावात्मक व संवाद पटल पर सुरक्षित रखने की सामर्थ्य जिस एक भाषा दिखती है वह है संस्कृत. कहा भी गया है- ‘देववाणी (संस्कृत) सब भाषाओं में मुख्य, मधुर और दिव्य है.’

नम्रता पाण्डेय
लेखक


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