उच्च शिक्षा में निवेश की जरूरत

Last Updated 08 Oct 2012 12:41:15 AM IST

यह खबर शिक्षा जगत पर पैनी नजर रखने वालों की पेशानी पर बल डालने के लिए पर्याप्त है.


उच्च शिक्षा में निवेश की जरूरत

विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग निकालने वाली वेबसाइट ‘टॉप यूनिवर्सिज डॉट कॉम’ के मुताबिक इस साल दुनिया के शीर्ष 200 शिक्षण संस्थानों में भारत का कोई भी संस्थान शुमार नहीं है. सूची में 212वें स्थान पर आईआईटी दिल्ली और 227वें स्थान पर आईआईटी मुंबई है. देश में शिक्षा के स्तर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दो साल पहले ‘क्यूएस टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग’ में आईआईटी मुंबई 187वें नंबर पर था.

इस सूची को देखकर यह स्वत: जाहिर हो जाता है कि क्यों नस्लीय हमले सह कर भी भारतीय छात्र ब्रिटेन-ऑस्ट्रेलिया में पढ़ते हैं और क्यों हमारे शिक्षा संस्थानों से कोई नोबेल विजेता नहीं निकलता. किसी जमाने में भले हम जगतगुरु रहे हों किंतु आज हम विश्वविद्यालयों को वे साधन और माहौल उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं जो छात्रों को मौलिक काम करने को उत्प्रेरित करता हो. मानव संसाधन मंत्रालय कागजों पर जितनी रस्साकशी कर ले, धरातल पर कुछ किया धरा नहीं दिखता.

सरकार ने हाल के सालों में शिक्षा के बजट में भले बढ़ोतरी की हो लेकिन उच्च शिक्षा के लिए बजट में कटौती ही की गई है. इसी का परिणाम है कि देश के शीर्ष केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भी डिग्री केंद्रित शिक्षा अर्जन का काम चल रहा है. आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान भी मेधावी छात्रों के लिये बस अच्छी नौकरी पाने का जरिया बन गए हैं. हमारे यहां जो मुट्ठी भर छात्र रिसर्च कार्य में संलग्न हैं वे भी मौका मिलते ही हार्वड, ऑक्सफोर्ड और येल विश्वविद्यालय जाने की ताक में रहते हैं. इन छात्रों में से कोई अगर वहां कमाल दिखाता है तो उन्हें भारतीय मूल का बता कर खुश होने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं होता.

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय हमारे शिक्षण संस्थानों की बेहतरी के लिए जो कुछ कर रहा है उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. फिर उसके कई कदम उस ओर उठ रहे हैं जो हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों की हालत खस्ता ही करेंगे. कुछ महीनों पहले मंत्रालय ने शैक्षणिक संस्थानों को रिसर्च से जुड़े उपकरणों और रसायन आदि की खरीद की जिम्मेदारी लेने और विदेश में रिसर्च पेपर पढ़ने के लिए स्पांसरशिप भी खुद ढूंढ़ने को कहा. मंत्रालय संस्थानों को स्वावलंबी बनाने के तर्क देकर यह भूल रहा है कि टॉप 200 शिक्षण संस्थानों में अधिकांश सरकारी पैसे से चलते हैं. यह जरूर है कि कई देशों में ऐसा ढांचा विकसित किया गया है कि निजी कंपनियां भी बगैर किसी तरह हस्तक्षेप के शिक्षण संस्थानों को पैसे डोनेट करती हैं.

मंत्रालय इस तरह का ढांचा विकसित करने में नहीं बल्कि सरकारी संस्थानों को कमजोर और निजी संस्थानों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. विदेशी संस्थानों के भारत आने का भी रास्ता खोला जा रहा है. लेकिन सवाल है कि ये विदेशी संस्थान या निजी संस्थान रिसर्च जैसे क्षेत्र में क्यों पैसा लगाना चाहेंगे? वे तो सीधे-सीधे लाभ के लिए काम करेंगे और सभी को मालूम है कि रिसर्च जैसे कार्य में पैसा लगाना उनके लिये लाभप्रद सौदा किसी कीमत पर नहीं हो सकता. लेकिन क्या मंत्रालय को भी इसी तर्क पर काम करना चाहिए? जाहिर है नहीं.

उच्च शिक्षा या फिर रिसर्च जैसे कार्य में पैसा लगाना देश के बेहतर मानव सूचकांक के लिये बेहद जरूरी है. हमारे यहां आईआईटी जैसे संस्थान बगैर सब्सिडी के खड़े नहीं हो सकते. दिल्ली विश्वविद्यालय को कैम्ब्रिज और हार्वड जैसे विश्वविद्यालय के सामने खड़ा करने लायक तभी बनाया जा सकता है जब सरकार उसे पर्याप्त पैसा मुहैया कराए. देष के प्रमुख शिक्षाशास्त्री और एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार ने एक पते की बात कही कि किसी भी शिक्षण संस्थान की गुणवत्ता योग्य शिक्षकों पर सबसे अधिक निर्भर होती है, जबकि हमारे यहां एक तो शिक्षकों की कमी है दूसरे हमारी संस्थाएं प्रतिभाशाली युवाओं की रुचि शिक्षण के पेशे की ओर करने में बिलकुल नाकाम रही हैं.

फिर शिक्षकों की कमी का खामियाजा ही है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारी स्थिति विकसित देशों के सामने कहीं नहीं टिकती. आज प्रतिवर्ष विश्व का 32 फीसद शोधपत्र केवल अमेरिका में तैयार होता है, भारत की हिस्सेदारी इसमें केवल ढाई प्रतिशत की है. हर साल अमेरिका में 25 हजार और चीन में 30 हजार पीएचडी तैयार होते हैं, जबकि भारत में यह तादाद महज 5 हजार तक सीमित है.

हालांकि शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में हमारे विश्वविद्यालयों का स्थान न होना कइयों के लिए चिंता की बात नहीं भी है. नेशनल इनोवेशन काउंसिल के चेयरमैन और ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष सैम पित्रोदा का कहना है कि हमारी जरूरतें अभी अलग हैं. हमारे फोकस में अभी अपने सभी बच्चों को स्कूली शिक्षा देना है, उच्च शिक्षा और वह भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में अभी समय तो लगना ही है.

फिर यह भी कि हमारे ज्यादातर शिक्षण संस्थान 50-60 साल ही पुराने हैं, जबकि सूची में शामिल ज्यादातर संस्थानों की उम्र 150 से 200 साल तक है. पित्रोदा की बातें एक तर्क भी हैं. एक ऐसा तर्क जिन्हें स्वीकारा तो जा सकता है लेकिन इसे अंतिम मानकर बैठा नहीं जा सकता. यह क्यों भूलें कि जिस चीन से हम बराबरी करना चाहते हैं वहां के सात विश्वविद्यालय टॉप 200 की सूची में शामिल हैं. अमेरिकी और यूरोपीय देश ही नहीं सिंगापुर, कोरिया, रूस, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील आदि भी हमसे आगे हैं.    

दरअसल, हम लाख बहानेबाजी कर लें, सच यह है कि न तो हम शिक्षा को लेकर अपना एक अलग ढांचा विकसित कर पाएं हैं और न ही पश्चिमी देषों के ढांचे की नकल ही कर पाए हैं. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निवेश अन्य शीर्ष देशों की तुलना में काफी कम है. सरकार न फंड मुहैया करा पा रही है, न तकनीक. यकीनन आज शिक्षा के क्षेत्र में निवेश से ही बात बन सकती है और इसके लिए कॉरपोरेट जगत से मदद ली जा सकती है. हमें प्राइवेट सेक्टर से ठीक वैसी ही मदद लेनी चाहिए जैसे विदेश में ली जाती है.

उन्हें शिक्षण संस्थाओं को गोद लेने को कहा जा सकता है या फिर जो प्राइवेट कंपनी शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक मदद दे उसे  टैक्स राहत दी जा सकती है. सरकार के पास उच्च शिक्षा हेतु पैसा लाने के लिए विकल्पों की कमी नहीं है लेकिन सवाल है कि आप चाहते क्या हैं? अगर आपकी महत्वाकांक्षा यहीं तक सीमित है कि आप भारतीय मूल के लोगों को विदेश में बेहतर काम करता देखें तो फिर किया क्या जा सकता है?

नीरज कुमार तिवारी
लेखक


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