उदारीकरण के दौर में गरीबी

Last Updated 10 May 2012 12:06:15 AM IST

भूमंडलीकरण-उदारीकरण के दौर में गरीबी की भयावहता लगातार ठोस प्रमाणों के साथ सामने आती रही है.


लेकिन सरकार ने गरीबी दूर करने के बजाय, इन प्रमाणों को झुठलाने की ही कोशिश अधिक की है. अब एक बार फिर भारत सरकार की संस्था ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन’ (एनएसएसओ) द्वारा आंकड़ों के जरिए गरीबी की हकीकत सामने लाई गई है. इस रिपोर्ट के अनुसार देश की 60 फीसद ग्रामीण आबादी 35 रुपये रोज से कम पर जीवन गुजारती है. इसकी तुलना में 60 फीसद शहरी आबादी 66 रुपये रोजाना पर गुजारा करती है. इनमें भी आठ करोड़ ऐसे लोग भी हैं, जो जैसे-तैसे 15 रुपये रोजाना की आमदनी से गुजारा करने को मजबूर हैं.

इसके पहले 2007 में अर्जुनसेन गुप्ता ने इसी संगठन द्वारा कराए सर्वेक्षण के आधार पर कहा था कि देश के 83 करोड़ 70 लाख लोग रोजाना 20 रुपये या उससे भी कम पर गुजारा करने को विवश हैं. ये दोनों ही रिपोर्ट उदारीकरण के बाद ढिंढोरा पीटे जाने वाले उस विकास की पोल खोलती हैं, जिसे बढ़ती आर्थिक विकास दर के बहाने बजाया जाता रहा है. गरीबी की यह सचाई उस अंतरराष्ट्रीय पैमाने को भी अंगूठा दिखाने वाली है, जिसके हिसाब से सवा डॉलर रोजाना की आय वाले व्यक्ति को गरीब और एक डॉलर आय वाले व्यक्ति को बेहद गरीब माना जाता है.

गरीबी के यथार्थ पर पर्दा डालने की कोशिश यूपीए सरकार अकसर करती रही है. यही वजह रही कि अब तक गरीबी रेखा आमदनी के किस आंकड़े पर स्थिर की जाए, यह विवाद बना हुआ है. योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इसे ग्रामीण गरीब के लिए 26 रुपये और शहरी गरीब के लिए 32 रुपये रोजाना की कमाई पर तय किया, लेकिन इसे सर्वस्वीकृति नहीं मिली. लिहाजा गरीबी के पैमाने का द्वंद्व अब भी बरकरार है. दरअसल, आर्थिक उदारीकरण के दौर में एक वर्ग विशेष को इतना लाभ हुआ है कि देश में नव-उदारवाद के पहले चंद करोड़पति हुआ करते थे, लेकिन देश में अब इनकी संख्या एक लाख 53 हजार है.

सरकारी चपरासी से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी तक के घरों से करोड़ों की नगदी और करोड़ों-अरबों की अचल संपत्ति बरामद हुई है. ये खुलासे इस बात की तसदीक करते हैं कि उदारवादी नीतियों को लाभ कैसे और कितने लोगों को मिला है ? उदारवादी दौर में सत्ता में बैठे लोगों ने सार्वजनिक तौर पर समावेशी विकास का लक्ष्य रखा. लेकिन जब भी गरीबों की बात आई तो उस अंतरराष्ट्रीय मानदंड को नकारा जाता रहा, जिसके मुताबिक व्यक्ति की न्यूनतम आय कम से कम सवा डॉलर रोजाना होनी चाहिए.

गरीबी रेखा के पैमाने का यह आंकड़ा तय कर दिया जाता है तो गरीबी का प्रतिशत भारत में क्या होगा, यह आकलन यकायक करना नामुमकिन है? हालांकि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने गरीबों को सस्ते अनाज मुहैया कराने का जो कानूनी अधिकार खाद्य सुरक्षा विधेयक के जरिए दिया है, उसके मुताबिक देश की 63.5 फीसद आबादी को सस्ती दर पर अनाज मिलेगा. हालांकि यह विधेयक अभी संसद में पारित नहीं हुआ है क्योंकि सस्ता अनाज देने के पैमाने पर अभी भी विवाद कायम है.

राष्टीय सलाहकार परिषद अब भी चाहती है कि देश की लगभग 75 फीसद आबादी को सस्ते राशन का पात्र मानकर, उन्हें दो रुपये प्रति किलो की दर से गेहूं और तीन रुपये प्रति किलो की दर से चावल मुहैया कराया जाए. इसकी मात्रा प्रति परिवार कम से कम 35 किलो हो.

किंतु प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मातहत केसी रंगराजन के नेत्तृत्व में जो आर्थिक सलाहकार परिषद काम कर रही है, वह केवल वास्तविक जरूरतमंदों को सस्ता अनाज देने पर अड़ी हुई है. इस सिफारिश के दायरे में 46 फीसद ग्रामीण और 28 फीसद शहरी आबादी आ रही है. इससे ज्यादा लोगों को सस्ता अनाज देना रंगराजन अव्यावहारिक मानते हैं. योजना आयोग भी इस योजना को इसलिए टालने में लगा हुआ है ताकि सरकार को अनाज की उपलब्धता और सब्सिडी खर्च का अतिरिक्त भार उठाना न पड़े. मंदी के घटाटोप के चलते, गरीबों को दी जाने वाले इस छूट को राजकोषीय घाटे का भी बड़ा आधार माना जा रहा है. लिहाजा मुश्किल ही है यह विधेयक संसद से जल्द से जल्द पारित हो पाए.

गरीबी, बेरोजगारी, भूख और खाद्य असुरक्षा के हालात पिछले दो दशक में जिस तेजी से भयावह हुए हैं, उसकी तह में आर्थिक उदारीकरण है. इसी के चलते कृषि और उससे जुड़े मानव संसाधन को नजरअंदाज किया गया. खेती व गांव से जुड़ी आबादी 66 फीसद है. बावजूद देश की कुल आमदनी में इनकी भागीदारी महज 17 फीसद मानी जाती है. खेती और गांव को बदहाल बनाने में पंडित नेहरू द्वारा अमल में लाई गईं वे नीतियां भी जिम्मेदार रहीं, जो शहरी और औद्योगिक विकास पर केंद्रित थीं.

नतीजतन, गावों में उपलब्ध कृषि, खनिज, वन और जल संपदा का तो ग्रामीणों के ही श्रम से अकूत दोहन कर शहरों को समृद्धशाली बनाए जाने की दिशा में काम किया गया, लेकिन कृषि और ग्राम आधारित रोजगार को ‘अकुशल श्रम’ मानते हुए उनकी मजदूरी के मूल्य को कमतर ही आंका गया. केवल इसी बिना पर फसल और फसल से बने उत्पादों के मूल्य, हमेशा उद्योगों से उत्पादित वस्तुओं की तुलना में कम से कम रखे गए. इसके चलते जहां अमीरी-गरीबी के बीच फासला बढ़ा, वहीं ग्राम आधारित नए रोजगार सृजित नहीं होने के कारण बेरोजगारी बढ़ी. फलत: हालात दयनीय हुए.

देश की सभी सरकारें सांसद-विधायकों और सरकारी कर्मियों के वेतन-भत्ते तो बढ़ती महंगाई की तुलना में बढ़ाती रही हैं, लेकिन इसी अनुपात में किसान-मजदूर को कभी आर्थिक सुरक्षा मुहैया नहीं कराई गई. क्या जरूरी नहीं है कि खाद्य-सुरक्षा, भविष्य निधि, मातृत्व लाभ, पेंशन व स्वास्थ्य संबंधी मानवीय सरोकारों से इन्हें भी जोड़ा जाए? कुछ समय पहले बेरोजगारी की पड़ताल श्रम मंत्रालय द्वारा भी की गयी थी. इसके अनुसार शहरी इलाकों में 7.3 फीसद और ग्रामीण  क्षेत्रों में 11.1 फीसद बेरोजगारी है. बेरोजगारी की इस तस्वीर ने भी साफ किया कि उभरती अर्थव्यवस्था का लाभ एक निश्चित और पूर्व से ही संपन्न तबके को मिला है. यदि विकास के समावेशी उपाय किए जाते तो जिस कृषि क्षेत्र में 45.5 फीसद रोजगार के अवसर मौजूद हैं, उसे नजरअंदाज नहीं किया जाता. यह विडंबना ही है कि हमारे नेताओं को आर्थिक विकास दर की तो चिंता है, लेकिन गरीबों की आय कैसे बढ़े, इस ओर से वे आंखें मूंद लेते हैं?

प्रमोद भार्गव
लेखक


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