शिक्षा में जरूरी है नवाचार
केंद्र सरकार ने आरटीई कानून को ज्यादा कारगर बनाने के लिए राज्यों से बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा दिलाने के लिये कहा है.
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इसके अलावा तनावरहित-भयमुक्त माहौल बनाने, बस्ते का बोझ घटाने, बच्चों को स्कूलों की ओर आकर्षित करने के बाबत कई दूसरे फैसले भी किए गए हैं.
दौलत सिंह कोठारी आयोग ने 1964 में ही कहा था कि देश में बच्चों को मातृभाषा के साथ ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की किसी एक भाषा में शिक्षा देने का बंदोबस्त होना चाहिए. बाल मनोवैज्ञानिक मारिया मांटेसरी ने अपनी ‘मांटेसरी पद्धति’ और शिक्षा दार्शनिक फ्रॉबेल ने अपनी ‘किंडर गार्टेन पद्धति’ में भी बच्चों को खेल के जरिए सिखाने-पढ़ाने की बात कही है. इन पद्धतियों से शिक्षा अगर बच्चों की बोली में दी जाए तो वह अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावी होती है.
हालांकि देश के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में व्यवहार में इस पर पहले से ही अमल होता रहा है. सर्वशिक्षा अभियान में पढ़ रहे 12 करोड़ से ज्यादा बच्चों को शिक्षक दूसरे विषयों के अलावा अंग्रेजी भी अधिक सरल बनाकर उनकी बोलचाल की मिश्रित बोली में ही पढ़ाते हैं. भाषा विशेषज्ञों के मुताबिक मातृभाषा में भी हर 14 मील पर बोली में बदल जाती है, शिक्षक भी इसका ध्यान रखते हैं.
इसके पीछे यह भी कारण है कि सौ फीसद नामांकन लक्ष्य हासिल करने में शिक्षकों की भी शत प्रतिशत जिम्मेदारी होती है. ऐसे में उन्हें नामांकित बच्चों के भले से ज्यादा उनके स्कूलों से पलायन कर जाने का डर होता है. सरकारी स्कूलों में मातृभाषा में पढ़ाई जरूरी इसलिए भी है क्योंकि जो बच्चे उन स्कूलों में पढ़ने आते हैं उनमें से ज्यादातर के अभिभावक कम पढ़े-लिखे होते हैं. वे सरकारी सुविधाओं से आकर्षित हो कर ही अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं.
उन घरों का माहौल स्थानीय भाषा और बोली की प्रधानता वाला ही होता है. उसके उलट ग्रामीण क्षेत्रों के निजी स्कूलों का माहौल सरकारी स्कूलों, उनमें पढ़ने वाले बच्चों और उनके घरों के माहौल से हट कर होता है. इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थानों में भी प्रशिक्षक अपने शिक्षकों के प्रशिक्षण के दौरान मातृभाषा में ही शिक्षण करने की ट्रेनिंग देते हैं.
हाल ही में कई शोध और सर्वेक्षणों ने भी सरकारी शिक्षा क्षेत्र में आ रही गिरावट और बदहाली का खुलासा किया है. गुणवत्ता में जमीनी सुधार न हो पाने के कारण लाजवाब केंद्र सरकार को आए दिन सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता है. सर्वशिक्षा अभियान में लगातार प्रयोग के चलते देश की प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा रसातल में जा रही है.
इस अभियान में भी किताबों के बेहतरीन कागज, पर्याप्त संख्या और आकषर्क छपाई से लगायत ड्रेस, बैग, छात्रवृत्ति, विद्यालय भवनों के निर्माण आदि सभी कामों में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और लापरवाही फैली है. हकीकत यह है कि अभियान में कार्यरत शिक्षकों, शिक्षामित्रों और विभागीय कार्मिंकों की संख्या के अलावा हर चीज में गड़बड़झाले हैं. देश में 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिये अनिवार्य शिक्षा का कानून बने भी सालों हो चले हैं. फिर भी अपेक्षित सुधार नदारद है.
ताजा फरमान में विद्यालयी शिक्षा का माहौल तनाव और भयमुक्त बनाने को भी कहा गया है. लेकिन हकीकत यह है कि इन फैसलों से शिक्षा जगत का खास भला होने वाला नहीं है. दरअसल, सरकार अंदरखाने सत्र की शुरुआत में निजी क्षेत्र से मिल रही चुनौतियों से निपटने की बात करती है लेकिन सत्र के आगे बढ़ने के साथ ही हकीकत भी उलटने लगती है. बहरहाल, इन नए फैसलों का सरकार के नवोदय विद्यालयों, केंद्रीय विद्यालयों, कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में भी अमल होने जा रहा है.
जहां तक बच्चों की जानकारी और समझ में बढ़ोतरी की बात है, सरकार ने प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों को बेहिसाब गैर-शिक्षणोत्तर काम सौंप रखा है. उनके शिक्षणोत्तर कार्य इतने बढ़ गए हैं कि उन्हें औसत मानक के आसपास भी कक्षाएं लगाने का अवसर नहीं मिल पाता है.
स्कूल खुले होने के बाद भी अनियमित कक्षा शिक्षण के कारण बच्चे अनुपस्थित रहते हैं या मध्याह्न भोजन खाकर स्कूल से पलायन कर जाते हैं. आरटीई कानून के मुताबिक बच्चों की शत प्रतिशत शिक्षा के लक्ष्य को पाने के लिए उनका स्कूलों में उपस्थित रहना अनिवार्य है. लिहाजा, शिक्षकों को मजबूरन उनकी फर्जी उपस्थिति बनानी पड़ती है.
इन हालातों में उनमें प्राथमिक स्तर पर ही नकल सिखाने और करने पर ज्यादा जोर दिया जाता है. बच्चों को परीक्षाओं में उसी के सहारे ब्लैकबोर्ड पर लिखे प्रश्नोत्तर अपनी उत्तर पुस्तिकाओं पर नकल करने की आदत भी डलवाई जाती है. इसी फार्मूले पर बच्चे कक्षाएं और स्कूल तो पास करते जाते हैं, लेकिन प्रतियोगिता के मैदान में वे प्रतिभाशाली होते हुये भी असफल होने लगते हैं.
स्कूलों में बच्चों के मनमाफिक माहौल तभी बनेगा जब शिक्षकों को शिक्षणोत्तर कायरे से मुक्त किया जाए. बाल मनोवैज्ञानिक, शिक्षा मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक तकनीक के विशेषज्ञों- सभी का यह मानना है कि शिक्षा में अनुशासन के लिये पुरस्कार और दंड दोनों बहुत जरूरी हैं. आसान शब्दों में बच्चे के सही करने पर ‘बकअप’ जबकि गलत करने पर ‘शटअप’ का शिक्षण सूत्र अपनाना भी जरूरी है.
लेकिन बच्चों के अभिभावक पुरस्कार मिलने पर तो खुशी जताते हैं जबकि अनुशासन तोड़ने पर हल्का दंड देने पर भी वे शिक्षकों के खिलाफ लामबंद हो जाते हैं और शिक्षकों के साथ बदसलूकी भी कर गुजरते हैं. हालांकि स्कूलों में गुस्सैल स्वभाव के कुछ शिक्षक बच्चों को गंभीर और डरावनी सजाएं भी दे देते हैं, लेकिन ऐसा आमतौर पर नहीं होता है.
इन्हीं हालात से बचने के लिये सरकारी स्कूलों में शिक्षक अब अनुशासन को तरजीह देना कम करने लगे हैं. आटीई कानून में भी अभी तक इस समस्या पर कोई ठोस फैसला नहीं हो पाया है. शिक्षा में सुधार के सिलसिले में ये नवाचार बहुत जरूरी हैं. लेकिन साथ ही बाकी समस्याओं का समाधान करना भी उतना ही जरूरी है.
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