प्राकृतिक आपदा का प्रबंध कौशल

Last Updated 06 Aug 2011 12:36:23 AM IST

बरसात के दिनों में पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ते भू-स्खलनों के कारण कहीं तीर्थ-यात्रियों तो कहीं पर्यटकों के फंसने के समाचार मिलते ही रहते हैं.


शासन-प्रशासन को पर्यटकों और तीर्थ-यात्रियों की चिंता तो होनी ही चाहिए, विशेषकर इस वजह से कि उनमें से अधिकांश पर्वतीय आपदाओं का सामना करने में अधिक सक्षम नहीं होते हैं और वे ऐसी अनजान जगह पर होते हैं जहां की भौगोलिक और सामाजिक स्थिति उनके अनुकूल नहीं होती पर साथ ही हमें उन स्थानीय गांववासियों के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए जिन्हें भूस्खलन व अन्य आपदाओं के बढ़ते संकट के बीच निरंतर रहना है.

भू-स्खलन जैसी आपदा की स्थिति सड़कों से मलबा हटने के बाद यात्री तो आगे बढ़ जाएंगे पर बढ़ते भूस्खलन के कारण जिन स्थानीय लोगों के आवास या गांव ही खतरे में पड़ जाते हैं वे कहां जाए. उन्हें तो वहीं रहकर इन विकट होती आपदाओं का अनवरत सामना करना है. इसलिए उनकी चिंता जरूरी है और ऐसे स्थायी भू-स्खलन का यह खतरा वन-विनाश, असुरक्षित निर्माण कार्य, डायनामाइट के अत्यधिक उपयोग, सड़क निर्माण में असावधानी आदि के कारण बढ़ गया है. बड़े बांधों व पनबिजली परियोजनाओं के क्षेत्रों व उनके आसपास भूस्खलन का खतरा ज्यादा बढ़ा है. टिहरी बांध जलाशय के पास के अनेक गांवों में आज जन-जीवन बहुत असुरक्षित हुआ है. खनन के विनाशकारी तौर-तरीकों ने भी भू-स्खलन की संभावना को बहुत ज्यादा बढ़ाया है.

हिमालय जैसे अधिक भूकंपीय प्रभावित क्षेत्रों में यदि विभिन्न मानव निर्मित कारणों से स्थितियां भू-स्खलन के अधिक अनुकूल होती हैं तो अपेक्षाकृत कम पैमाने के भूकंप से भी भू-स्खलनों का सिलसिला आरंभ हो सकता है. इस तरह भूकंप से होने वाली क्षति कहीं अधिक होती है.

इसके अतिरिक्त यदि भूस्खलन के मलबे से किसी पर्वतीय नदी-नाले पर अस्थाई बांध बन जाए तो यह भी बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है. यदि बहुत समय तक नदी-नालों का पानी इस अस्थाई झील में एकत्र होता रहे व फिर पानी का वेग बढ़ने के साथ व मलबा हटाकर अचानक बह निकले तो इससे बहुत प्रलयकारी बाढ़ आ सकती है.

जहां एक ओर भू-स्खलन की संभावना कम करने व भू-स्खलन वाले क्षेत्रों के उपचार की जरूरत है, वहां कुछ आवासों व बस्तियों के लिए खतरा बढ़ जाने पर वहां का निवासियों के लिए उचित समय पर संतोषजनक पुनर्वास की व्यवस्था भी हो जानी चाहिए.

जलवायु बदलाव के इस दौर में ग्लेशियरों के पिघलने से उनके नीचे ऐसी झीलें बन रही हैं जिनके अचानक फूटने से बहुत विनाशक स्थिति उत्पन्न हो सकती है. विख्यात पर्वतारोही आपा शेरपा ने कुछ समय पहले बताया था कि नेपाल में स्थित उनका गांव थेम ऐसी एक झील के फूटने से पूरी तरह गया बह गया था. उन्होंने बताया कि अब वे एवरेस्ट क्षेत्र में ऐसी ही एक झील इमजा खोला के फटने की संभावना से बहुत चिंतित है क्योंकि ऐसा हादसा बहुत प्रलयकारी सिद्ध हो सकता है.

जलवायु बदलाव के इस दौर में आपदाओं की संभावना बढ़ रही है और कई तरह की अप्रत्याशित आपदा स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं पर इस ओर ध्यान न देते हुए अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों में आपदाओं की संभावनाओं को बढ़ाने वाले अनेक कार्य हो रहे हैं. कुछ शहरों और पर्यटन स्थलों में लालचवश निर्माण इतने बढ़ा दिए गए हैं कि भूमि धंसने लगी है. इस तरह कई नए स्थानों पर भूस्खलन की संभावना बढ़ रही है.

बड़े ठेके और निर्माण या खनन कार्य करने वाली कुछ बड़ी कंपनियां सरकारों व प्रशासन तंत्र पर कई बार इतना हावी हो जाती हैं कि उनके कार्यों व परियोजनाओं पर जो निगरानी व नियंत्रण जरूरी है, उसकी गुंजाइश कम हो जाती है. जहां एक ओर इस तरह ने निहित स्वार्थों पर अंकुश लगाना जरूरी है वहां दूसरी ओर सामान्य लोगों में आपदाओं से बचाव के प्रति जागृति उत्पन्न करना व व्यावहारिक महत्व के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना भी जरूरी है. पंचायतों की आपदा प्रबंधन व बचाव में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, पर सवाल यह है गांव समुदायों की राय को सरकार कितना महत्व देने को तैयार है. आपदा प्रबंधन व विशेषकर बाढ़ के लिए यह भी जरूरी है कि विभिन्न राज्यों में, पड़ोसी देशों में, पहाड़ी व मैदानी इलाकों में आपदा प्रबंधन के संदर्भ में बेहतर तालमेल हो.

भारत डोगरा
लेखक


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