रखना होगा बूंद-बूंद का हिसाब

Last Updated 22 Mar 2011 12:40:06 AM IST

वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि जल सकंट दूर करने के ठोस कदम न उठाये गये तो मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा.


पानी के लिए यदि समय रहते कुछ सार्थक कर पाने में नाकाम रहे तो दुनिया से मिट जाएंगे. यह जानते-समझते हुए भी जिम्मेदार लोग अपेक्षित पहल करते नहीं दिखते. उन्हें इसकी कतई चिंता नहीं कि देश में प्रदूषित पानी पीने के कारण हर साल हजारों लोग जानलेवा बीमारियों का शिकार होकर असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं. जब देश की राजधानी ही इससे अछूती नहीं है, तो दूसरे राज्यों का हाल तो भगवान भरोसे ही मानिए.

खेद है कि भारत के संविधान के मूल दस्तावेज में भूजल या उससे जुड़े मुद्दों का कोई उल्लेख नहीं है और न आजादी के बाद से आज तक भूजल से जुड़ी चुनौतियों और समस्याओं की विकरालता के बावजूद किसी ने भी भूजल को संविधान में जुड़वाने का प्रयास किया. देश की जल नीति में भूजल की समस्याओं की चर्चा तो है लेकिन अंतत: बांध निर्माण को ही प्राथमिकता मिली है जो पर्यावरण की दृष्टि से विनाश का परिचायक है.

यह जानते-बूझते हुए भी कि बांध से न ऊर्जा का लक्ष्य हासिल हुआ और आर्थिक दवाब पड़ा सो अलग, सरकार आंख पर पट्टी बांधे बैठी है. जबकि प्राचीन पारंपरिक कुएं-तालाब आदि से न तो पर्यावरणीय बुराइयों का सामना करना पड़ता है, न पुनर्वास की समस्या आती है और न आर्थिक विसंगतियों से जूझना पड़ता है.

हालांकि हमारे जल संसाधन विभागों के नीतिपरक दस्तावेजों में बांधों को खाद्यान्न सुरक्षा का कारगर तरीका बताया गया है जबकि सच्चाई यह है कि देश के ज्यादातर हिस्से में आज भी नलकूप और कुओं से सिचांई होती है और इन पर आधारित सिंचिंत क्षेत्र बांधों द्वारा सिंचिंत क्षेत्र के बराबर ही हैं. अगर कहा जाए कि सतही जल संरचनाओं (बांध) और नलकूपों तथा कुओं का खाद्यान्न सुरक्षा में योगदान लगभग बराबर है तो गलत नहीं होगा. लेकिन विडम्बना है कि सरकार के जल संसाधन विभागों द्वारा अधिकाधिक धन का उपयोग बांध और जलाशयों जैसी सतही जल सरंक्षण संरचनाओं पर ही खर्च होता है- कुओं, तालाबों, जोहड़ों आदि के निर्माण पर नहीं. यह विसंगति भी जल संकट की बढ़ोतरी का अहम कारण है.

इस मामले में बांधों और भूजल का दोहन करने वाली जल संरचनाओं से जुड़ा आर्थिक विसंगति का मुद्दा गम्भीर है जिसकी कहीं कोई चर्चा नहीं होती. बांध और कुओं-तालाबों आदि के निर्माण की लागत में जमीन-आसमान का अंतर झुठलाया नहीं जा सकता. भूजल के सवाल पर केन्द्र और राज्य सरकार तथा उनके योजनाकारों का प्रयास आकड़े जुटाना, उनकी जांच पड़ताल और शोध मात्र रहा है. अभी तक इस दिशा में परिणाम मूलक प्रयास नहीं हुए हैं.

सर्वविदित है कि वर्षा जल का 3 से 7 फीसद भाग धरती के नीचे प्राकृतिक तरीके से संरक्षित होता है. भूजल सरंक्षण का यह काम प्रकृति करती है. इसके द्वारा ही आज तक कुओं और नलकूपों की मदद से जमीन के नीचे का पानी दुनिया को मिलता रहा है. यदि इस सरंक्षण की प्रक्रिया को मानवीय प्रयासों से बढ़ाया जाता है तो नलकूपों और कुओं, तालाबों आदि की संरक्षण क्षमता बढ़ायी जा सकती है.

सभी जानते हैं कि भूजल की मात्रा बढ़ाकर नलकूपों और कुओं की उम्र और उनके द्वारा सिंचिंत क्षेत्र की सीमा बढ़ाई जा सकती है जबकि सतही जल सरंचनाओं परियोजनाओं (बांधों) की निर्धारित उम्र होती है और उसकी सिंचाई की क्षमता भी कुओं और नलकूपों से अधिक होती है लेकिन उसमें लगातार सिल्ट जमने के कारण सतही परियोजनाओं की उम्र जहां घटती जाती है, वहीं उसकी सिचाई की क्षमता भी दिन ब दिन कम होती चली जाती है.

हमारे यहां अनुमानत: 4000 यूनिट यानी 4000 क्यूबिक किलोमीटर पानी बरसता है. जिसमें से 690 क्यूबिक किलोमीटर सतही जल सरंक्षण संरचनाओं यथा- बांध जलाशयों के माध्यम से सिंचाई के काम आता है और लगभग 2000 क्यूबिक किलोमीटर पेड़-पौधों की जड़ों में समा जाता है. कुछ भूजल में मिल जाता है, कुछ भाप बन कर उड़ जाता है. शेष 1310 क्यूबिक किलोमीटर पानी समुद्र में जा मिलता है जिसका कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है. यदि सोची-समझी नीति के तहत इसे रिचार्ज के लिए संरक्षित किया जाए तो जल-सकंट नहीं रहेगा. लेकिन आज तक इस दिशा में  हुए प्रयासों का कारगर परिणाम सामने नहीं आया है.

जरूरी है औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर अंकुश हेतु नीति-निर्धारण एवं घरेलू स्तर पर जल का अपव्यय रोकने हेतु प्रति व्यक्ति जल उपयोग की सीमा निर्धारण और बेकार बह जाने वाले वर्षा जल के उपयोग की व्यवस्था. भूजल को संविधान में स्थान दिलाने हेतु भी जरूरी कोशिश हो. सरकार को सतही और भूजल को समान महत्व देने हेतु राजी किया जाये. सतही और रिचार्ज सहित भूजल जल परियोजनाओं की नए सिरे से योजना बनाई जाये.

पर्यावरणीय एवं टिकाऊ जल व्यवस्था के आधार पर कामों की योजना बनायी जाये और उसे जलनीति में शामिल किया जाये. सारा बरसाती पानी जो सतही सिंचाई योजनाओं के निर्माण में उपयोग में लाया जाता है, के स्थान पर उसके कुछ हिस्से को ग्राउंड वॉटर रिचार्ज योजनाओं के निर्माण हेतु आवंटित किया जाये. जब तक पानी की एक-एक बूंद का हिसाब नहीं रखा जायेगा और समाज को उसके महत्व के बारे में जानकारी नहीं दी जायेगी तब तक जल सकंट से छुटकारा असंभव है.

ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक


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