बांग्लादेश और सीरिया का हश्र

Last Updated 08 Dec 2024 01:15:51 PM IST

बांग्लादेश के जन्म को करीब आदि शताब्दी हो रही है। लेकिन इस ऐतिहासिक स्वर्णिम अवसर पर पड़ोसी देश में कोई जश्न नहीं हो रहा। सेना और जेहादी तत्वों के बलबूते सत्ता का मुखौटा बने मोहम्मद युनूस ने बांग्लादेश के स्वर्णिम इतिहास को मिटाने के लिए मुहिम जारी रखी है।


बांग्लादेश और सीरिया का हश्र

हाल में बांग्लादेश के मुद्रा टका पर राष्ट्रपिता बंगबंधु शेख मुजिबुर्रहमान के चित्र को हटा कर कथित ‘मानसून क्रांति’ के चित्र छापे जा रहे हैं। आगामी 16 दिसम्बर को बांग्लादेश की जन्म तिथि पर वहां कोई बड़ा आयोजन होगा इसकी संभावना नहीं है। लेकिन भारत में इस अवसर पर सेवा के जवानों और मुक्ति वाहिनी के योद्धाओं के शौर्य और बलिदान को अवश्य याद किया जाएगा। कोलकाता में विभिन्न संगठनों ने इस विजय दिवस पर रैलियां आयोजित करने की घोषणा की है। दुनिया के इतिहास में यह अनोखा अवसर है जब कोई देश अपने गौरव को इतिहास को झुठला रहा है तथा अत्याचारी शासन (पाकिस्तान) की तरफदारी कर रहा है। बांग्लादेश का अवाम किस सीमा और समय तक यह बर्दाश्त करता है, यह आने वाले दिनों में साफ होगा।

कठपुतली शासक मोहम्मद यूनुस ने सबसे बड़े सहयोगी देश भारत और उसके नेतृत्व को निशाना बनाया है। बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की घटनाओं से भारतीय जनमानस क्षुब्ध है। इसका सबसे अधिक असर पश्चिम बंगाल में दिखाई दे रहा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राजनीतिक कारणों से बांग्लादेश के हालात पर टिप्पणी करने से बचती रही हैं। लेकिन अब उन्होंने भी वहां संयुक्त राष्ट्र शांति सेना तैनात करने की मांग की है। भारत सरकार ने बांग्लादेश के घटनाक्रम पर संयत रवैया अपनाते को वहां सामान्य स्थिति बहाल करने में सहयोग करने की पहल की है। संभवत: इसी क्रम में विदेश सचिव विक्रम मिस्त्री सोमवार को ढाका जाने वाले हैं। भारत में पड़ोसी देश को अरबों रुपयों का कर्ज और आर्थिक सहायता दी है।  जाहिर है भारत विभिन्न क्षेत्रों में हुए अपने आर्थिक और गैर-आर्थिक निवेश को व्यर्थ नहीं होने देना चाहता। विदेश सचिव की यात्रा के बाद स्पष्ट होगा कि द्विपक्षीय संबंध कौन सी करवट लेता है।

बांग्लादेश अकेला देश नहीं है जहां एक धर्मनिरपेक्ष शासन सत्ता दम तोड़ रही है। हजारों मील दूर पश्चिम एशिया में सीरिया में भी यही घटनाक्रम दिखाई दे रहा है। सीरिया पश्चिम एशिया में एकमात्र देश है जो लोकतांत्रिक होने के साथी धर्मनिरपेक्ष भी है। उस क्षेत्र में एक के बाद एक धर्मनिरपेक्ष देश का पतन होता रहा है। यह विडंबना है कि अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष शासन के खिलाफ कट्टरपंथी इस्लामी ताकतों का साथ दिया है। सीरिया में भी यही दोहराया जा रहा है। पूरे घटनाक्रम में खलनायक की भूमिका तुर्की के राष्ट्रपति यदरेगन निभा रहे हैं। गाजा में इस्रइल की ओर से जारी नरसंहार के खिलाफ यदरेगन बढ़-चढ़ कर बोलते रहे हैं। लेकिन अब जग-जाहिर है कि उन्होंने फिलिस्तीन और इस्रइल के खिलाफ प्रतिरोध की शक्तियों के साथ विासघात किया है। फिलहाल, सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असद को केवल रूस और ईरान का सहारा है। तुर्की के समर्थन से जेहादी लड़ाकू राजधानी दमिश्क की ओर बढ़ रहे हैं। रूस की वायु सेना उन पर बमबारी कर रही है जिससे उनकी बढ़त धीमी है।

सीरिया में रूस के नौसैनिक और वायु सैनिक अड्डे हैं। इनकी सुरक्षा के लिए वह हरसंभव उपाय करेगा। यूक्रेन-रूस युद्ध में उलझे होने के कारण रूस पर्याप्त ताकत सीरिया में नहीं झोंक सकता लेकिन इसके बावजूद उसके पास इतनी सैन्य शक्ति अवश्य है कि अपने सैनिक अड्डों और दमिश्क की सुरक्षा कर सके। पश्चिम एशिया के बदलते स्वरूप को लेकर ईरान भी बहुत चिंतित है। इस क्षेत्र में सीरिया और हिज्बुल्लाह उसके प्रमुख सहयोगी हैं। हिज्बुल्लाह की ताकत कम हो गई है तथा सीरिया का भविष्य अनिश्चित है। ऐसे में ईरान को आशंका है कि अगला निशाना वही बनेगा। दुर्भाग्यपूर्ण है कि सीरिया के घटनाक्रम ने गाजा की मानवीय त्रासदी से दुनिया का ध्यान हटा दिया है। पूरी बहस शिया-सुन्नी वैमनस्य और प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित हो गई है। पश्चिम एशिया के सुन्नी बहुल देश शिया शासन वाले सीरिया की मदद के लिए सामने नहीं आ रहे हैं। इसके विपरीत वे बशर-अल-असद की सत्ता के पतन का इंतजार कर रहे हैं।

डॉ. दिलीप चौबे


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