भरोसे का आधार

Last Updated 20 Apr 2024 01:40:40 PM IST

सर्वोच्च न्यायालय ने लोक सभा सभा के प्रथम चरण के मतदान से एक दिन पहले चुनावी मशीन की विसनीयता के बारे में यही कहा। एडीआर और अन्य की तरफ से जारी जनहित याचिकाओं पर दूसरे दिन सुनवाई करते हुए ईलेक्ट्रिक वोटिंग मशीन पर संदेह जताने को सही नहीं बताया।


भरोसे का आधार

इस पर फैसला अभी आना है। पर इन टिप्पणियों से ईवीएम पर न्यायालय के रु ख का पता चलता है। स्वदेश निर्मिंत ईवीएम मशीन से चुनाव बीसवीं सदी के नौवें दशक से ही कराया जा रहा है। इसके पहले, 1982 में केरल की परवूर विधानसभा उपचुनाव में उसे कुछ बूथों पर आजमाया गया था। इसकी खामियों को दुरु स्त कर इसे प्रयोग-सक्षम बनाया गया। ईवीएम के जरिए यूपीए ने दो आम चुनाव जीते हैं और केंद्र में उनकी दो सरकारें बनी हैं। इसके पहले एनडीए की भी सरकार बनी है।

विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के चुनाव ईवीएम से ही हुए हैं। इसके बावजूद हारे हुए दल या गठबंधन हर आम चुनाव के वक्त ईवीएम को हटाने या उसे वीवीपीएटी से लैस करने की मांग चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक करते रहे हैं। आयोग की तरफ से हर चुनाव के पहले उनके समक्ष ईवीएम के फूलप्रूफ डेमो के जरिए चिंताओं के निराकरण के बावजूद सवाल उठाते रहना एक रस्मी कवायद है। उनका आरोप होता है कि इसमें डाले गए वोट भाजपा को मिलते हैं।

पहले के कुछ उदाहरण इसकी तस्दीक भी करते थे पर यह तो मशीनी गड़बड़ी हो सकती थी। अब तो इसमें पर्याप्त सुधार किया गया है। तभी तो सर्वोच्च न्यायालय ने चार करोड़ टेस्टेड डेटा पर अपना भरोसा जताया है। यह सही भी है। ऐसा नहीं होता तो यूपीए ही लगातार जीतता होता या एनडीए का राज बदस्तूर रहता। दलों को चुनावों में इतना पैसा और पसीना नहीं बहाना पड़ता। ईवीएम अपने आका को तश्तरी में नतीजे परोस देती।

न्यायालय ने रस्मी याचियों से स्पष्ट कर दिया है कि बैलेट पेपर और बक्से की झीना-झपटी वाले प्रतिगामी चुनावी दौर में भारत जैसे ‘महादेश’ को नहीं लौटाया जा सकता। यह जर्मनी नहीं है। अलबत्ता, इस मसले पर फिर उंगली न उठे इस लिहाजन हर वोट का हिसाब रखने के लिए ईवीएम को वीवीपीएटी के साथ जोड़ने पर विचार किया जा सकता है। अंतिम परिणाम में देरी के बावजूद। चुनाव बिल्कुल शुद्ध-पवित्र तरीके से होना चाहिए ताकि उसके जनादेश की ‘गारंटी’ हो। सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी में अवाम का मत है।



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