कांग्रेस में हार पर मंथन
पांच राज्यों में पार्टी की करारी हार के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में कुछ भी हैरान करने वाला नहीं रहा।
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गांधी परिवार की मुखिया और पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने नेतृत्व छोड़ने की पहल की, जिसे पार्टी ने नकार दिया। दरअसल, देश की सबसे पुरानी पार्टी का यह सबसे पुराना रोग है कि गांधी परिवार के नेतृत्व के बिना कांग्रेस की कोई अहमियत नहीं है। पार्टी के ज्यादातर लोग ऐसी ही मानसिकता के हैं। बदलाव की महत्ता क्या होती है और फिलवक्त इसकी कितनी जरूरत है; इस बारे में कोई नहीं सोचता-विचारता है। यही वजह है कि पार्टी सिमटकर महज दो राज्य में रह गई है।
पांच राज्यों के चुनाव में हार कोई सामान्य घटना नहीं है। खासकर अपने तुरूप के पत्ते प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश में आजमाने के बावजूद नतीजा सिफर आने के बाद यह सवाल चहुंओर गूंज रहा है कि अब कांग्रेस का क्या होगा? क्या पार्टी संगठन के स्तर पर काम करेगी, जो हाल के वर्षो में पूरी तरह से चरमरा गई है, क्या पार्टी उस रणनीतिक चूक पर खुले दिमाग से चर्चा करेगी, जिसकी वजह से वह भाजपा की गलतियों का फायदा नहीं उठा सकी। यह सब सवाल फिलहाल सवाल ही बने रहेंगे क्योंकि कांग्रेस में बदलाव करने वाले जो भी हैं, वह या तो उठ कर खड़ा हो पाने की मन:स्थिति में नहीं हैं या उन्हें लगता है सत्ता खुद-ब-खुद चलकर इनके पास आएगी। अब एक बार फिर संसद सत्र के बाद पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता चिंतन शिविर में जुटेंगे। पार्टी से बाहर हो रही चर्चा की बात करें तो तमाम सियासी पंडित यही सलाह देते नजर आते हैं कि पार्टी को अगर पहले की तरह शासन करने वाले राजनीतिक दल के पैमाने पर फिट करना है तो इसकी कमान गांधी परिवार से इतर किसी और नेता के सुपुर्द करनी चाहिए।
कम-से-कम गांधी परिवार को एक बार यह साहसिक निर्णय लेना ही होगा। उन्हें समझना होगा कि जो भी लोग उन्हें नेतृत्व छोड़ने से मना कर रहे हैं, दरअसल वही पार्टी के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इसलिए ऐसी किसी सलाह को न मानने में ही पार्टी की भलाई है। एक बात तो तय है कि पार्टी में जोश भरने के लिए चिंतन शिविर और कार्यसमिति की बैठक का कोई मतलब नहीं है। पार्टी को अगर भाजपा का विकल्प बनना है तो उसे वाकई में कुछ लीक से हटके फैसले लेने होंगे। यही एकमात्र उपाय है।
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