प्रक्रिया का दुरुपयोग
निर्भया सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के मामले में चारों दोषियों की फांसी जिस तरह लगातार टल रही है, उसे पूरे देश में हैरत और क्षोभ के साथ देखा जा रहा है।
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सामान्यत: यह समझ से परे है कि जब बर्बर दुष्कर्म का इनका अपराध साबित हो गया, सर्वोच्च न्यायालय तक ने फांसी की सजा बरकार रखी है, पुनर्विचार याचिकाएं खारिज हो गई और यहां तक कि फांसी के लिए डेथ वारंट तक जारी हो गया तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है?
यही हमारी न्यायिक प्रक्रिया की विशेषता है और कमजोरी भी। विशेषता यह है कि किसी का अपराध साबित होने के बाद भी मौत की नींद सुलाने के पहले बचाव का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। यही कमजोरी भी है जिसका दुरु पयोग होता है। इसमें क्यूरेटिव याचिका से लेकर दया याचिका का प्रावधान है। इसका इस्तेमाल चारों अपराधियों की ओर से उनके वकील कर रहे हैं। एक नियम यह है कि कई लोग एक ही अपराध के दोषी हैं, तो उनको अलग-अलग फांसी नहीं दी जा सकती। यह भी इनके काम आ रहा है।
इन अपराधियों के वकील ने एक-एक कर क्यूरेटिव याचिका डाली जिसमें पहले समय खिंचता गया। उसके बाद एक-एक कर राष्ट्रपति के यहां दया याचिका दायर की जिसके निपटारे के कारण समय निकलता गया। लग नहीं रहा था कि इस बार तीन मार्च को तय फांसी टलेगी। तिहाड़ जेल में जल्लाद आ चुका था। उसने फांसी देने का डमी अभ्यास भी कर लिया था। ऐन वक्त पर क्यूरेटिव याचिका डाली गई जो खारिज हो गई तो फिर राष्ट्रपति के यहां दया याचिका। हालांकि इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया समय गुजर चुका था। बावजूद क्यूरेटिव याचिका दायर की गई। इसका सीधा अर्थ यही है कि अपराधियों के वकील न्यायायिक प्रक्रिया में मौजूद फांक का निहायत गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। वे भी जानते हैं कि इनको फांसी तय है। बस, आप इस तरह से उनकी सांस कुछ दिनों के लिए बढ़ा सकते हैं।
न्यायाधीश ने टिप्पणी भी कि अब इसे टाल दिया गया तो पीड़ित के न्याय के अधिकार का हनन करना होगा। एक बार तो जज को भी गुस्सा आ गया और उन्होंने अपराधियों के वकील से कहा कि आप आग से खेल रहे हैं किंतु वे निर्धारित प्रक्रियाओं के पालन को विवश थे। यह स्थिति साबित करती है कि बलात्कार और हत्या के जघन्य मामलों में न्यायिक प्रक्रिया में बदलाव किया जाना चाहिए ताकि अपराधियों को अनावश्यक फायदा न मिले।
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