भागवत की मंशा

Last Updated 27 Feb 2018 02:43:45 AM IST

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने मेरठ में आयोजित ‘राष्ट्रोदय कार्यक्रम’ में हिन्दू धर्म की जिस दार्शनिक धारा की व्याख्या की है, वह कोई नया वैचारिक ढांचा खड़ा नहीं करती है.


भागवत की मंशा

यह संघ परिवार की पारंपरिक सोच है, जो हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा में जाकर समाहित होती है और अंतत: उसे और पुख्ता ही करती है.

उन्होंने कट्टर हिन्दुत्व के विचार को स्पष्ट करते हुए कहा कि हिन्दू कट्टर है- सत्य के लिए, अहिंसा के लिए, पराक्रम के लिए और उदारता के लिए. निस्संदेह, विचार और भाषणों के स्तर पर यह उत्तेजनामूलक और पवित्र विचार लग सकता है लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे इस धर्मनिरपेक्ष देश की सरजमीन पर लागू किया जा सकता है?

असलियत तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों में शामिल कथित धर्म ध्वजावाहक बाबा, मनचले और लंपट तत्व हिन्दू धर्म के नाम पर जिस तरह का उन्माद पैदा करते रहते हैं, उससे हिन्दुत्व की दार्शनिक धारा लगातार प्रदूषित हो रही है. भारत का सामाजिक ढांचा बहुलतावादी है और यही इसकी ताकत भी है. इसमें अनेक धर्मो, संप्रदायों, पंथों और भाषाओं के लोग रहते हैं. सिर्फ रहते नहीं, अपनी जातीय पहचान और इस पहचान को बनाए रखने की आतुरता के साथ रहते हैं.

ऐसे में संपूर्ण राष्ट्र को स्वयंसेवक बनाने का विचार कल्पनालोक में विचरने जैसा है. संघ की सबसे बड़ी चुनौती भारतीय समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था है. जाति जैसे नकारात्मक कारक से निपटने का क्या रास्ता है, यह आज तक संघ परिवार तलाश नहीं सका है. ऐसे में मुसलमान, ईसाई, सिख और अन्य पंथों और संप्रदायों को मानने वाले लोग संघ की हिन्दुत्व छतरी के नीचे कैसे आएंगे, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है.

हिन्दुओं में भी एक बड़ा तबका ऐसे बुद्धिजीवियों और पढ़े-लिखे लोगों का है जो धार्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिकता की कसौटी पर परखता है. ऐसे लोग संघ परिवार में शामिल होना नहीं चाहेंगे. कर्मकांडी, पोंगापंथी और अंधविश्वासी तत्वों का जमावड़ा है, सो अलग. संघ परिवार की कोशिश यह होनी चाहिए कि हिन्दू धर्म और अधिक उदार बने और अपनी कमजोरियों से मुक्त हो.



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment