‘आप’ का क्या होगा!
आम आदमी पार्टी ने संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) में भेजने के लिए जिन व्यक्तियों का चयन किया है, उससे न केवल राजनीतिक जानकारों को अचरज हुआ बल्कि यह भी सुनिश्चित हो गया कि इस देश में वैकल्पिक राजनीति के लिए कोई जमीन नहीं बची है.
‘आप’ का क्या होगा! |
आम आदमी का, आम आदमी के लिए और आम आदमी द्वारा शासन संचालित करने का आकषर्क और लोक लुभावन नारा गढ़ने वाले अरविंद केजरीवाल की पार्टी ‘आप’ और अन्य राजनीतिक पार्टियों की प्रकृति और कार्यशैली में कोई बुनियादी फर्क नहीं है.
दरअसल, यह केजरीवाल की मजबूरी है क्योंकि आज भारतीय लोकतंत्र और भारत की चुनावी राजनीति जिस तरह धन और बाहुबल की चेरी बन गई है, उसमें सादगी, ईमानदारी और सच्चे लोक सेवकों के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई है, और यह भी सच है कि जो इस कोठरी में रहेगा, उसकी कमीज पर कालिख लगनी ही है.
लेकिन ऐसा नहीं है कि केजरीवाल राजनीति के इस यथार्थ से परिचित नहीं थे. वह पढ़े-लिखे और तेजतर्रार व्यक्ति हैं, और अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल के लिए जो आंदोलन हुआ था, उस दौरान उन्हें भारतीय राजनीति की असलियत को गौर से परखने का मौका भी मिला था.
बावजूद इसके उन्होंने राजनीति में आदर्श, पारदर्शिता और शुचिता स्थापित करने की प्रतिबद्धता जाहिर की. सही मायने में आम आदमी के साथ यह राजनीतिक छलावा था. सुशील गुप्ता और एनडी गुप्ता जैसे लोगों को उच्च सदन में भेजकर उन्होंने अपने एकाधिकारवादी गुणों का ही परिचय दिया है क्योंकि उनके ज्यादातर विधायक इस निर्णय के पक्ष में नहीं थे.
आखिर सुशील गुप्ता की करोड़पति होने के अलावा राजनीति में .विश्वसनीयता ही क्या है? इसीलिए आम आदमी पार्टी के नेतृत्व पर पैसे का लेन-देन के आरोप भी लग रहे हैं. सुशील गुप्ता कांग्रेस के टिकट पर मोती नगर सीट से 2013 का विधान सभा चुनाव लड़ चुके हैं, और आम आदमी पार्टी के प्रखर विरोधी रहे हैं. पार्टी का उच्च नेतृत्व दावा कर रहा है कि वह उच्च सदन में प्रख्यात लोगों को भेजना चाहता था.
अट्ठारह लोगों की सूची भी तैयार की गई थी, लेकिन उनसे संपर्क करने पर कोई भी इसके लिए राजी नहीं हुआ. यह गंभीर सवाल है कि क्या उनकी .विश्वसनीयता और साख इतनी गिर गई है कि कोई नामचीन व्यक्ति उनके साथ जुड़ना नहीं चाहता था या कोई दूसरा मसला है. अरविंद को इन सवालों पर आत्ममंथन करना चाहिए.
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