कोविंद की नई पारी
यह भारतीय लोकतंत्र की ताकत और खूबसूरती है कि बेहद गरीब और दलित परिवार से आने वाले रामनाथ कोविंद चौदहवें राष्ट्रपति के तौर पर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद का दायित्व संभालने जा रहे हैं.
कोविंद की नई पारी |
हालांकि केआर नारायणन के बाद वह देश के दूसरे दलित राष्ट्रपति होंगे. लेकिन उनका उत्तर प्रदेश का निवासी होना भारतीय राजनीति विशेषकर भाजपा की दूरगामी राजनीति के लिए बहुत मायने रखता है.
दलित आंदोलनों के लिहाज से इस प्रदेश की मिट्टी बहुत उर्वर रही है. कई शक्तिशाली दलित आंदोलन यहां हुए हैं. अलबत्ता, पिछड़ों के समर्थन से किसी दलित महिला को पहला मुख्यमंत्री बनने का अवसर भी यहीं मिला.
इसलिए इस बात की पूरी गुंजाइश है कि कोविंद के राष्ट्रपति बनने से भाजपा को सियासी फायदे अवश्य मिलेंगे. प्रदेश के दलितों के एक वर्ग और उसके नेताओं का कोविंद के साथ संपर्क और संवाद हमेशा बना रहता है.
लिहाजा, राष्ट्रपति जैसे गैर-राजनीतिक पद पर रहते हुए भी कोविंद परोक्ष तौर पर दलित समाज को प्रभावित करेंगे. यह स्थिति पहले से कमजोर हो चुकीं मायावती और उनकी दलित राजनीति को और हाशिये पर ले जा सकती है. इसका सियासी फायदा भाजपा को मिलेगा. वैसे भी इस बार के राष्ट्रपति चुनाव ने स्पष्ट कर दिया है कि आनुपातिक रूप से भाजपा की स्थिति समूचे विपक्ष की तुलना में बेहद मजबूत है.
हालांकि कोविंद ऐसे समय में राष्ट्रपति के पद और दायित्व का निर्वाह करने जा रहे हैं, जब दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ने का आरोप विपक्ष सत्ता पक्ष पर लगा रहा है.
ऐसे में देखना होगा कि कोविंद दलितों के खिलाफ अत्याचार रोकने में कितना समर्थ हो पाते हैं. भारतीय गणतंत्र में राष्ट्रपति में असीम अधिकार शक्तियां निहित होती हैं. राज्य का प्रमुख होने के साथ साथ वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेना नायक होता है. लेकिन संविधान उसे एक हाथ से असीम अधिकार और शक्तियां देता है तो दूसरे हाथ से वापस भी ले लेता है.
इसलिए देश के शासन-प्रशासन में उसकी भूमिका मात्र सलाह देने भर की रहती है. इतना जरूर है कि किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को चुनाव में बहुमत नहीं मिलता है तो वह अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर किसी को भी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकता है. रामनाथ कोविंद कैसे राष्ट्रपति साबित होंगे, यह तो भविष्य ही बताएगा.
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