आपातकाल फिर नहीं
आपातकाल की वार्षिकी पर अनेक कार्यक्रम होते हैं, जिसमें उसे याद करते हुए देश को आगाह किया जाता है कि फिर कभी उसकी पुनरावृत्ति नहीं हो.
आपातकाल फिर नहीं |
कांग्रेस इस दिवस पर वैसे तो शांत रहती है, पर प्रधानमंत्री द्वारा आपातकाल की आलोचना को कांग्रेस पता नहीं क्यों सहन नहीं कर पाई है?
वस्तुत: इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की रात जिस तरह से आपातकाल की घोषणा की उससे पूरा देश थर्रा गया था. उस दौरान आम विरोधियों से लेकर विपक्ष के बड़े नेताओं को बेवजह जेलों में डाला गया, पत्रकारिता बेड़ियों में जकड़ दी गई, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार तक अपहृत कर लिया गया..उन सबको जिन्होंने देखा है वे यकीनन इसकी वार्षिकी पर सिहर जाते हैं.
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इस आंदोलन की गूंज बिहार से निकलकर दिल्ली तक पहुंच गई थी. हालांकि, इलाहाबाद उच्च न्यायालय इंदिरा गांधी का सांसद के रूप में चुनाव रद्द नहीं करता तो वो आपातकाल लागू करने का कदम शायद ही उठाती. कुछ लोग तो नाउम्मीद हो गए थे कि आपातकाल की काली रातों का कभी अंत होगा और लोकतंत्र फिर से वापस आ सकेगा. किंतु यह भारत देश है, जिसने गुलामी की जंजीरों को पहले भी तोड़ा था.
बहरहाल, आपातकाल की क्रूर घटनाओं को याद करने का अर्थ अपने को सचेत करना है ताकि हमें फिर वैसी स्थितियां न झेलनी पड़े. कुछ लोग अपने राजनीतिक विचारधारा के कारण वर्तमान परिस्थितियों की गलत व्याख्या करते हुए इसकी तुलना आपातकाल से कर रहे हैं. या कुछ लोग कहते हैं कि आपातकाल की आहट फिर से सुनाई दे रही है. आपातकाल की कोई आहट नहीं होती. इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तो उसकी आहट कहीं से नहीं थी.
दूसरे, देश में संविधानप्रदत्त स्वतंत्रता पर कहीं से किसी तरह का अंकुश नहीं है. तीसरे, इस समय केंद्र में सत्तारूढ़ घटक का नेतृत्व करने वाली पार्टी स्वयं उस आपातकाल की भुक्तभोगी है. प्रधानमंत्री सहित इसके अनेक मंत्री आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष करने वालों में रहे हैं. इसलिए इसकी किंचित मात्र भी आशंका नहीं होनी चाहिए कि वर्तमान शासन में आपातकाल फिर से लगाया जा सकता है. हां, हमें इसके प्रति सचेत रहने की आवश्यकता जरूर है.
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