मैदान में मीरा
राष्ट्रपति चुनाव ‘दलित बनाम दलित’ हो गया है. कांग्रेस समर्थित विपक्ष ने मीरा कुमार को राम नाथ कोविंद के मुकाबले में उतार दिया है.
मैदान में मीरा |
पूरी संभावना थी, कांग्रेस कोविंद की काट में दलित में से ही ज्यादा सशक्त-सक्षम, धर्मनिरपेक्ष, उदार और लोकप्रिय प्रत्याशी खड़े करेगी. ऐसा जो सबको आसानी से स्वीकार हो. न केवल पार्टी के दायरे में बल्कि बाहर भी.
इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस या विपक्ष के लिए कोविंद की टक्कर में मीरा से बेहतर पृष्ठभूमि की और पसंदीदा शायद कोई उम्मीदवार होता. वह राजनीति में नामचीन रहे ‘बाबू जी’ जगजीवन राम की काबिल बेटी हैं. लोकसेवा की समृद्ध पारिवारिक विरासत के अलावा, अति मृदुभाषी मीरा के पास खुद की अर्जित पर्याप्त योग्यता है.
विदेश सेवा में चयन से लेकर, लोक सभा के चुनाव लड़-लड़ कर केंद्रीय कैबिनेट में कई महकमे संभालने और फिर लोक सभा की अध्यक्षी तक. अनेक पदों पर काम करने के अवसरों ने उनके अनुभवों को वह वैविध्य दिया है, जो राष्ट्रपति होने में काम आ सकते हैं. वह निष्कलंकता में भी कोविंद से होड़ करती हैं. अलबत्ता, वह राजग प्रत्याशी की तरह प्रमाणित विधिवेत्ता नहीं हैं. लेकिन यह बुनियादी अयोग्यता नहीं है.
देश ने यह नोट किया है कि मीरा मुकाबले में शख्सियत के आधार पर बीस हैं पर गणित में वह 18 पर अटक गई हैं. 17 दलों को मिलाकर भी उनका वोट प्रतिशत 37 से नीचे रह जा रहा है. ऐसे में परिणाम जाहिराना तौर पर कोविंद के पक्ष में है. फिर भी अगर कांग्रेस ने मीरा को उतारा है तो इसकी वजह है. सत्ता पक्ष ने कोविंद का चयन दलित वोट बैंक की गरज से किया है. फिर विपक्ष को इस पर भरोसे में नहीं लिया गया. उसे केवल सूचना भर दी गई. ऐसे में अकेले विपक्ष से आदर्शवादी और सैद्धांतिक राजनीति की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
चुनावी रणनीति विपक्ष की चाल देखकर तय की जाती है. इस हिसाब से मीरा को आगे लाना विपक्ष के अधिकार में है और उचित है. अलबत्ता, बड़ी लकीर खिंचने की गुंजाइश हमेशा रहती है. लेकिन जब सत्ता पक्ष दलितों के प्रति वास्तविक सहानुभूति के बजाय चुनावी फायदे से निर्देशित हो रहा है तो एक ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष के मानक भिन्न कैसे हो सकते हैं? वोट बैंक की दरकार उसे भी है. मीरा के रूप में विपक्ष का विरोध भले प्रतीकात्मक लगे, पर इसकी अपनी अपरिहार्यता है.
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