कर्ज माफी की फांस
चुनाव पूर्व घोषणा के मुताबिक योगी सरकार की पहली कैबिनेट से किसानों की कर्ज माफी नहीं हो सकी.
कर्ज माफी की फांस |
भाजपा ने इस वादे के साथ किसानों को नये कर्ज देने की बात कही थी. कांग्रेसी ‘खाट’ पर बैठते जा रहे किसानों को अपने पाले में लाने के लिए यह करना जरूरी था. पर अब यही योगी सरकार की पहली अग्निपरीक्षा साबित होने वाली है.
उप्र में देश के सबसे ज्यादा तादाद में लोग खेती-किसानी में लगे हैं. लिहाजा कर्ज की रकम भी सबसे ज्यादा 27,000 करोड़ रुपये है. इतनी भारी-भरकम राशि की एकमुश्त माफी अकेले उप्र सरकार के वश की बात नहीं है. लेकिन केंद्र की भाजपा सरकार, जिसकी निगरानी में एकमुश्त कर्ज सधान का यह संकल्प-पत्र तैयार किया गया था, ने भी ठंडा रुख अख्तियार कर लिया है.
इसकी वजह तीन प्रतिशत का राजस्व घाटा है, जिसको वह 2018 तक पाटने में लगी है. अगर इसके रहते उप्र का वादा पूरा किया जाए तो केंद्र की अनेक महत्त्वाकांक्षी या वोटर लुभाऊ योजनाएं, जिनका भरपूर लाभ भाजपा को इस चुनाव में मिला है, की गति धीमी करनी होगी. केंद्र यह रिस्क लेने की स्थिति में नहीं है.
इसलिए कि उप्र में किसानों की कर्ज माफी होते ही आसन्न विस चुनावों वाले राज्यों से ऐसी मांग उठेगी. और अगर उप्र में आंशिक ही सही, कर्ज सधान न होने पर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ बनाने का प्रधानमंत्री का अभियान ‘नैतिक रूप से संकटग्रस्त’ हो जाएगा. तब उन्हें अन्य राज्यों के किसान मतदाताओं को भरोसा दिलाना मुश्किल हो जाएगा. फिर यह सब अनुशासित अर्थशास्त्र पर टिका है. बैंक या पूंजी बाजार एकबारगी माफी को एक खराब राजनीतिक अर्थशास्त्र मानते हैं. ऐसा हुआ तो सब कुछ धड़ाम से बैठ जाएगा.
यह मानते हुए कि सीमांत और छोटे किसान मिल कर लगभग 85 फीसद बैठते हैं. ये लोग पिछले दो साल से लगातार सूखे और उस वजह से भी बढ़ते कर्ज से हलकान हैं. अब इतना बड़ा वर्ग अगर अर्थव्यवस्था में योगदान नहीं कर पाता है तो वह खुशहाली लंगड़ी होगी. फिर इन्हीं बैंकों के तर्क पूंजीपतियों को उदारतापूर्वक कर्ज देने वक्त कुछ और हो जाते हैं.
दरअसल, किसानों और उनके कर्ज की चिंता चुनाव के वक्त करने के बजाय सतत होनी चाहिए. उनसे इसकी वसूली लायक लाभकारी व्यवस्था बनाया जाना चाहिए. यह हो तो उनमें मुफ्तखोरी की आदत नहीं लगेगी और राजस्व का बंटाधार नहीं होगा. पर इसके लिए सरकार को एक मानक बनाना होगा, जिसकी अभी दरकार है.
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