जल्लीकट्टू पर सियासत

Last Updated 20 Jan 2017 04:59:49 AM IST

तमिलनाडु में पोंगल के अवसर पर मनाया जाने वाला पारंपरिक सांस्कृतिक खेल जल्लीकट्टू के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय की ओर से लगाए गए प्रतिबंध का विरोध आंदोलन की शक्ल में तब्दील होता जा रहा है.


जल्लीकट्टू पर सियासत

जल्लीकट्टू सांडों को काबू करने का प्राचीन खेल है.

राज्य की जनता इसे अपनी अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान के साथ जोड़कर देखती है. लेकिन एक एनजीओ की याचिका पर शीर्ष अदालत ने इस खेल को पशुओं के प्रति क्रूरता माना.

और मई 2014 में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था. इस प्रतिबंध के खिलाफ और जल्लीकट्टू के समर्थन में पूरे प्रदेश में प्रदर्शन हो रहे हैं. दरअसल, देश की राजनीतिक पार्टियां अपने वोटबैंक को ठोस आधार देने के लिए संस्कृति और परंपराओं का दोहन करने का अवसर तलाशती रहती है.

इसी के मद्देनजर केंद्र सरकार ने 8 जनवरी 2016 को एक अधिसूचना जारी करके जल्लीकट्टू पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया था. कुछ पशुप्रेमी संस्थाओं ने सरकार के इस फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी.

पिछले गुरुवार को अदालत ने प्रतिबंध को जारी रखते हुए अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. जल्लीकट्टू के समर्थन में प्रदर्शन करने वाले प्रिवेंशन ऑफ क्रूअल्टी टू एनिमल्स एक्ट 1960 के सेक्शन 27 में संशोधन करके जल्लीकट्टू सांड को प्रशिक्षित पशुओं की श्रेणी में रखने की मांग कर रहे हैं.

ऐसे पशुओं का इस्तेमाल सेना और पुलिस में किया जाता है. दरअसल, चाहे राज्य की सरकारें हो या केंद्र की, लोक परंपरा और संस्कृति से जुड़े सवालों का विवेकसम्मत हल ढूंढने के बजाय उन्हें भड़काने का ही काम करती हैं.

जल्लीकट्टू का मसला भी इसी नजरिये की उपज है. अगर देश के राजनीतिक दल आम जनता के बीच संस्कृति और परंपरा के नाम पर जारी सांस्कृतिक विकृतियों के खिलाफ चेतना का प्रचार-प्रसार किया होता तो इस तरह की परंपराओं के खिलाफ विरोध का वातावरण निर्मित होता. जिसका आज के जीवन मू्ल्य में कोई योगदान नहीं है.

अन्य धर्मो और जातीय समूहों में भी ऐसी पारंपरिक सांस्कृतिक विकृतियां प्रचलित हैं. अगर जल्लीकट्टू जैसे अनावश्यक परंपरा पर रोक लगाने में सफलता मिलती है तो अन्य धर्मो में भी प्रचलित सांस्कृतिक विकृतियों के द्वार बंद हो सकेंगे. क्या राजनीतिक दल और सरकारें इतना साहस दिखा पाएंगी?



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