अब आगे अखिलेश
चुनाव आयोग ने साइकिल का चिह्न अखिलेश यादव को सौंपकर निर्विवाद रूप से समाजवादी पार्टी में उनका नेतृत्व स्थापित कर दिया.
अब आगे अखिलेश |
इसी के साथ पिछले कुछ महीनों से पार्टी में वर्चस्व स्थापित करने के लिए जारी पारिवारिक लड़ाई का अंत भी हो गया.
अब अखिलेश यादव पिता और चाचाओं की छत्र-छाया से मुक्त होकर संगठन और यदि चुनाव बाद उनकी सरकार बनती है तो दोनों दायित्वों का निर्वाह स्वतंत्र और उन्मुक्त होकर निभाएंगे. इससे कमजोर नेता और प्रशासक की बनाई गई उनकी छवि भी ध्वस्त होगी.
सही मायने में तो बीते एक जनवरी को बुलाए गए सपा के अधिवेशन के बाद दीवारों पर लिखी इबारत बताने लगी थी कि समूची पार्टी पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का एकाधिकार स्थापित हो गया है, लेकिन यह देखकर भी कोई अनदेखी कर रहा था तो वह थे मुलायम सिंह यादव. शायद पुत्र के हाथों इतनी बुरी पराजय को स्वीकार करना उनके लिए भारी पड़ रहा था.
बेहतर होता कि वह यह नौबत आने नहीं देते. शायद एक व्यक्ति के प्रभुत्व वाली क्षेत्रीय पार्टियों का हश्र यही होता है. लोगों को याद होगा कि तेलुगूदेशम पार्टी के मुखिया एनटी रामाराव के साथ भी ऐसा ही हुआ था.
अब मुलायम सिंह परास्त हो गए हैं और इसके बाद पार्टी को एकजुट रखने की जिम्मेदारी अखिलेश यादव के कंधे पर आ गई है, क्योंकि यदि शिवपाल सिंह का धड़ा रहता है और मुलायम सिंह अपनी पार्टी खड़ी करते हैं तो गंभीर स्थिति होगी. अलबत्ता, अखिलेश यादव को राजनीतिक कौशलता का परिचय देते हुए अपने पिता मुलायम सिंह के साथ हरसंभव समझौता करने का प्रयास करना चाहिए.
यदि महज तीस-पैंतीस सीटों को लेकर दोनों खेमों में विवाद है तो इसे मान लेने में ही अखिलेश की राजनीतिक भलाई है. यदि ऐसा नहीं हुआ और एक सीट पर दोनों खेमों के उम्मीदवार खड़े होंगे तो सपा के कार्यकर्ता भ्रम में रहेंगे, आपसी शत्रुता बढ़ेगी और इसका राजनीतिक फायदा विरोधियों को मिलेगा.
दरअसल, निजी तौर पर मुलायम सिंह का जो नुकसान होना था वह हो चुका है, लेकिन आपसी शत्रुता से जो नुकासान अब होगा वह सिर्फ अखिलेश यादव के हिस्से में आएगा. इसलिए पिता के समक्ष झुकना भी पड़े तो अखिलेश के लिए फायदेमंद साबित होगा. पिता के आशीर्वाद से राज-काज चलाने के इच्छुक पुत्र से ऐसी ही उम्मीद बनती है.
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