मोदी सरकार और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के शुरूआती दो साल में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़ी गतिविधियों को दिए जाने वाले सहयोग का गिलास आधा भरा है या आधा खाली?
(फाइल फोटो) |
आधा भरा कहना ज्यादा उचित रहेगा लेकिन विधायी कार्य की कमी के कारण इसमें जो छिद्र हो गए हैं, उनसे ये लाभ बाहर निकल रहे हैं. ये छिद्र न होते तो अर्जित लाभ कहीं ज्यादा होता.
इस बात में अब कोई संदेह नहीं है कि दो साल पूरे कर चुकी मोदी सरकार भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के असल महत्व को समझती है. दक्षिणपंथ की ओर झुकाव रखने वाली सरकार होने के चलते ऐसे कई संदेह थे कि राजग सरकार आधुनिक विज्ञान के विकास की राह में रोड़े अटका सकती है और इसके नेता प्राचीन हिंदू दर्शन पर और भारत का प्राचीन वैदिक काल के केंद्र के रूप में गुणगान करने पर ज्यादा ध्यान दे सकते हैं.
हालांकि ऐसा कुछ हद तक तो हुआ है लेकिन मुख्य फोकस इस बात पर रहा है कि किस तरह से स्वदेशी नवाचार के लाभों को आम जन तक पहुंचाया जाए. अपने कार्यकाल के एक माह के भीतर मोदी ने रॉकेट के प्रक्षेपण पर भारतीय अंतरिक्ष केंद्र में मौजूद रहकर अपने भविष्य के रूख का संकेत दे दिया था. उन्होंने पोलर सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल के प्रक्षेपण के अवसर पर 30 जून 2014 को वहां से एक जोश से भरा भाषण दिया था और इसमें भारतीय विज्ञान समुदाय को ‘प्रतिभावान’ कहकर संबोधित किया था.
यह पहली बार था, जब ‘चायवाला’ रह चुके मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में टेलीप्रॉम्पटर का इस्तेमाल किया और दिखा दिया कि वह भी आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर सकते हैं. कुछ ही समय बाद उन्होंने परमाणु वैज्ञानिकों और कृषि समुदाय से भी बातचीत की. एक के बाद एक करके लगातार दो विफल मानसूनों का सामना करके और भारतीय जनता का मनोबल टूटने से बचाए रखकर उन्होंने दिखा दिया कि ‘नीतिगत पंगुता’ अब बीते दौर की बात हो चुकी है.
यह श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को ही जाता है कि उन्होंने विज्ञान मंत्रियों के तौर पर उन नेताओं को नियुक्त किया है, जिन्हें इस क्षेत्र की गहरी समझ है.पहले विज्ञान मंत्री जितेंद्र सिंह थे, जो मधुमेह के विशेषज्ञ हैं और चिकित्सा विज्ञान पर कई किताबें प्रकाशित कर चुके हैं.
नवंबर 2014 के फेरबदल में हषर्वर्धन को विज्ञान का केबिनेट मंत्री बनाकर लाया गया. वह एक ऐसे मृदुभाषी और समझदार नेता हैं, जो कुशल भारतीय वैज्ञानिकों के साथ आसानी से संपर्क कर सकते हैं. एक कनिष्ठ मंत्री वाईएस चौधरी ने भी शपथ ली, जो नेता बनने से पहले उद्योगपति रहे हैं.
स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रति हर्षवर्धन का प्रेम सर्वविदित है और उन्हें भारत से पोलियो उन्मूलन करने वाले व्यक्ति के रूप में पहचाना जाता है. शपथ लेने के बाद से हषर्वर्धन ने वैज्ञानिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए कई प्रयोगशालाओं के लगातार दौरे किए हैं.
वैज्ञानिकों के रहन-सहन की स्थितियों का जायजा लेने के लिए हर्षवर्धन ने अरब सागर में भारत के शोध पोत सिंधु साधना पर भी एक रात बिताई थी. दृढ़ संकल्प वाले हर्षवर्धन शायद एकमात्र ऐसे मंत्री हैं, जो कहते हैं कि ‘उन्होंने प्रार्थना की कि उनके अपने मंत्रालय द्वारा की गई वैज्ञानिक भविष्यवाणी गलत साबित हो जाए.’ ऐसा उन्होंने तब कहा था, जब भारतीय मौसम विभाग ने वर्ष 2015 में सूखा पड़ने की भविष्यवाणी की थी. लेकिन ईश्वर ने तब हर्षवर्धन की प्रार्थनाएं नहीं सुनीं लेकिन 2016 में अच्छा मानसून आने की उनकी प्रार्थनाएं सच हो सकती हैं.
प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के निवर्तमान अध्यक्ष सीएनआरराव ने खुले तौर पर मोदी का समर्थन करते हुए कहा था, ‘वह निश्चित तौर पर एक विजन वाले व्यक्ति हैं. इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि वह कुछ करना चाहते हैं. हम उम्मीद करते हैं कि वे न सिर्फ अच्छी सलाह का इस्तेमाल करेंगे बल्कि उन अदभुत विचारों का भी इस्तेमाल करेंगे, जो उनके पास हैं. निश्चित तौर वह काम करने वाले व्यक्ति हैं. जब आप उन्हें सुनते हैं, तो उनकी बात में आपको कुछ भी गलत नहीं लगा. मोदी जो कहते हैं, वह सही होता है.’
यह कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों के साथ लंबे समय तक काम कर चुके एक वैज्ञानिक की ओर से मिलने वाला एक दुर्लभ समर्थन था. ऐसा नहीं है कि मोदी और हषर्वर्धन के नेतृत्व में सबकुछ अच्छा ही है. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़े कई अहम विधेयक हैं, जो ठंडे बस्ते में पड़े हैं और जिन्हें जल्दी पारित किया जाना जरूरी है.
राष्ट्रीय जैवप्रौद्योगिकी नियमन प्राधिकरण विधेयक लंबे समय से लंबित है और फिलहाल इसके पारित होने का कोई संकेत नजर नहीं आ रहा. इसका नतीजा यह हो रहा है कि सरकार द्वारा किसान के खेतों में जैव रूप से संवर्धित फसलों की और अधिक किस्मों को भेजने पर फैसला न लिए जाने पर जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है.
हर्षवर्धन यदि जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में प्रति वर्ष 20 अरब डॉलर तक या 10 अरब डॉलर तक की वृद्धि चाहते हैं तो उन्हें यह बात पूरी तरह स्पष्ट करनी होगी. इसी तरह से इंसानी डीएनए निर्धारण विधेयक भी मृत प्राय: जान पड़ता है.
वित्तीय मोच्रे पर देखा जाए तो भारत के वैज्ञानिक बजटीय आवंटन में एक भारी कटौती के लिए तैयारी कर रहे थे. हालांकि वित्त मंत्री अरूण जेटली ने वर्ष 2016 में उदारता दिखाते हुए उन्हें हैरान कर दिया. उन्होंने केंद्रीय नियोजन रूपरेखा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय को पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 811 करोड़ रूपए की वृद्धि कर दी थी, जो लगभग 11 प्रतिशत का इजाफा दिखाती है. जैवप्रौद्योगिकी विभाग को 193 करोड़ रूपए की वृद्धि मिली, जो पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 12 प्रतिशत का इजाफा दिखाती है.
कुल 37 प्रयोगशालाओं के नेटवर्क वाले वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान विभाग के लिए बजट लगभग सपाट ही रहा. वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) इसी विभाग के तहत आता है.
इसके बावजूद सीएसआईआर के लिए एक बड़ी राहत की भी वजह थी. वर्ष 2015 में देहरादून में सीएसआईआर के सभी निदेशकों की बैठक में हर्षवर्धन ने इस प्रस्ताव पर जोर दिया था कि ‘अगले दो साल में सभी सीएसआईआर प्रयोगशालाओं को स्ववित्तपोषण वाला बना दिया जाए.’ इससे उन 16 हजार कर्मचारियों में स्तब्धता छा गई, जिन्हें लगा कि जल्दी ही सीएसआईआर एक कम खर्च वाला अनुबंध आधारित शोध संगठन बन जाएगा और सुदूर भविष्य के लिए किए जाने वाले अनुसंधानों को अलविदा कह दिया जाएगा.
फिर भी आईआईटी दिल्ली में जैव प्रौद्योगिकीविद सैयद हसनैन जैसे वैज्ञानिक प्रसन्न नहीं हैं. उनका कहना है, ‘भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद जैसे उच्च स्तरीय चिकित्सा अनुसंधान प्रतिष्ठानों ने शोध छुट्टी की घोषणा कर रखी है क्योंकि कोष उपलब्ध नहीं है.’
इसके विपरीत स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा कहते हैं कि स्वास्थ्य क्षेत्र में कोष की कोई कमी नहीं है लेकिन इसके समय से इस्तेमाल में कमी है और यह बात उन्हें परेशान करती है. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मोदी को अंतरिक्ष से खास लगाव है और उन्होंने 30 जून 2014 को इसरो को पड़ोसियों के इस्तेमाल के लिए ‘दक्षेस उपग्रह’ बनाने का आदेश दिया, जो कि भारत की ओर से उनके लिए एक उपहार होगा.
मोदी के इस कथन ने इसरो के तत्कालीन नेतृत्व को सुखद आश्चर्य में डाल दिया था. पाकिस्तान की ओर से इस पहल का समर्थन करने से इंकार कर दिए जाने के बाद उपग्रह का नाम बदलकर दक्षिण एशिया उपग्रह रख दिया गया.
इसरो इस दिशा में आगे बढ़ रहा है और वह इस साल के अंत तक इस मैत्री संचार उपग्रह को प्रक्षेपित करने की उम्मीद कर रहा है.
इसी बीच, इसरो ने 1500 करोड़ रूपए से कम खर्च में और महज सात उपग्रहों का इस्तेमाल करके भारत को उपग्रह आधारित दिशासूचक प्रणाली दी है.हाल में मोदी सरकार की दूसरी वर्षगांठ से कुछ ही दिन पहले इसरो ने ‘स्वदेशी स्पेस शटल’ प्रक्षेपित किया. यह एक ऐसी प्रौद्योगिकी है जो प्रक्षेपण की लागत 10 गुना कम करती है.
21 जुलाई 2014 को प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभालने के 60 दिन से भी कम समय में मोदी देश की परमाणु क्षमताओं का जायजा लेने के लिए भारत के प्रमुख परमाणु प्रतिष्ठान भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र पहुंचे थे.उनके इस अलग दौरे के बावजूद परमाणु सुरक्षा नियमन प्राधिकरण विधेयक को सरकार द्वारा गंभीरता के साथ नहीं उठाया गया है.
परमाणु ऊर्जा के वाणिज्यिक इस्तेमाल के लिए जरूरी अन्य संशोधन संसद में पारित तो गए हैं लेकिन अभी तक किसी विदेशी संयंत्र को खरीदने या भारत में स्थापित करने के लिए किसी संधि पर हस्ताक्षर करने में कामयाब नहीं हो पाए हैं.
इसी दौरान उच्च स्तरीय ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम ने कई वैज्ञानिकों को उलझन में डाल दिया है कि उस ‘मेड इन इंडिया’ का क्या होगा, जिसकी दिशा में बढ़ते हुए विज्ञान मंत्रालय को अपने विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति को अद्यतन करने की जरूरत है और इस पर काम जारी है.
विशेषज्ञों ने कहा है कि जब तक भारतीय वैज्ञानिक भारत में खोज और नवोन्मेष नहीं करते, तब तक ‘मेक इन इंडिया’ एक नारा ही रहेगा. जल्दी कीजिए श्रीमान मोदी, आपका समय तेजी से बीत रहा है. हनीमून का दौर खत्म हो चुका है और अब भारतीय जनता परिणाम चाहती है.
आधे भरे के साथ शुरूआत अच्छी है और भारत में विज्ञान के समर्थन के लिए मोदी सरकार की ओर से लक्ष्य पर लगने वाले निशानों की संख्या चूकने वाले निशानों की संख्या में ज्यादा है.(पीटीआई /भाषा)
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