नजरिया : महंगाई से पार पाने की चुनौती

Last Updated 17 Feb 2010 07:43:41 PM IST


उपेंद्र राय दो हफ्ते में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी बजट पेश करने वाले हैं। वित्तमंत्री के सामने मांगों की लंबी लिस्ट हमेशा से रहती है। उघोग जगत एक्साइज ड्यूटी में कमी और अन्य टैक्स-कटौती जैसी हर छूट चाहता है। टैक्सपेयर कम टैक्स देने की मांग करता है। किसानों को सस्ता कर्ज चाहिए, फसल-बीमा की सुविधा चाहिए, सिंचाई की सुविधा के लिए ज्यादा सरकारी अनुदान चाहिए। गांवों को बिजली, सड़क और पानी चाहिए जबकि शहरी आबादी बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर की मांग कर रही है। वित्तमंत्री इन मांगों को पूरा करने की कोशिश तो करेंगे ही, लेकिन फिलहाल उनकी चुनौती महंगाई पर काबू पाना है। सोमवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक महंगाई दर फिर से साढ़े आठ परसेंट के ऊपर चली गई है। इतना ही नहीं, खाने-पीने का सामान तो पिछले साल के मुकाबले जनवरी में 18 परसेंट महंगा हो गया है। पिछले एक साल में चीनी 100 परसेंट, आलू 41 परसेंट, दालें 40 परसेंट और सब्जियां 21 परसेंट महंगी हुई हैं। अब वित्तमंत्री के सामने चुनौती है कि महंगाई पर काबू करने की कोशिश करें या फिर सामाजिक कार्यों पर खर्च बढ़ाने के लिए जरूरी पैसों का इंतजाम करें। 2008 में मंदी से इंडस्ट्री को उबारने के लिए ढेर सारी मदद दी गई। इसमें प्रमुख था एक्साइज ड्यूटी और सर्विस टैक्स में कटौती। कटौती रंग लायी। जिन वस्तुओं पर टैक्स में छूट दी गई उनकी बिक्री तेजी से बढ़ी। कार पर एक्साइज ड्यूटी में छूट मिली थी और पिछले कई महीने से कारों की बिक्री 30 परसेंट की रफ्तार से बढ़ रही है। कंज्यूमर ड्यूरेबल्स को भी छूट का फायदा मिला था और उसकी बिक्री में तो 40 परसेंट तक का इजाफा हुआ है। ऐसी स्थिति में वित्तमंत्री पर दबाव है कि वो इंडस्ट्री को दी गई राहत को वापस लें। राहत वापस लेने के पीछे तर्क भी है। इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक इसमें करीब 17 परसेंट की बढ़ोतरी हुई है। विकास दर 7 परसेंट से ज्यादा रहने का अनुमान है। ऐसे में क्या इंडस्ट्री को किसी सहारे की जरूरत है? सब कुछ ठीक हो रहा है तो वाकई इंडस्ट्री को सहारे की जरूरत नहीं है। लेकिन क्या वित्तमंत्री सारी छूट को वापस लेकर महंगाई और बढ़ाने का रिस्क लेंगे? खाने-पीने की चीजें तो काफी महंगी हैं ही, ऐसे में मैन्यूफैक्चरिंग गुड्स भी महंगे हो जाएंगे तो महंगाई की दर दो अंकों को भी पार कर सकती है। फिर तो रिजर्व बैंक पर तेजी से ब्याज दर बढ़ाने का दबाव पड़ेगा, जिसका ग्रोथ पर भी असर पड़ेगा। ऐसे में वित्तमंत्री क्या करें? जवाब जानने के लिए यह जानना जरूरी है कि हाल के दिनों में खाने-पीने की चीजों के दाम क्यों बढ़े हैं। पहले चीनी के अर्थशास्त्र को समझते हैं। इस साल चीनी का उत्पादन एक करोड़ 50 लाख टन पहुंचने का अनुमान है जबकि हमारी खपत करीब दो करोड़ 30 लाख टन की रहेगी। जाहिर है, हमारे देश में चीनी की कमी है लेकिन क्या इतनी कमी है कि कीमत एक महीने में 20 परसेंट बढ़ जाए? कमी का अंदाजा सरकार को भी था। फिर समय पर इंपोर्ट करने का फैसला क्यों नहीं किया गया? दो साल पहले देश में चीनी का उत्पादन मांग से कहीं अधिक था। ऐसे में सरकार ने दूरदर्शिता क्यों नहीं दिखाई? सरकार के उस फैसले को क्यों नहीं ठीक से लागू कराया गया जिसमें ट्रेडर और कंपनियों पर तय सीमा से ज्यादा चीनी का स्टॉक रखने पर रोक लगाई गई थी। स्टॉक लिमिट लगाने का फैसला काफी पहले लिया गया लेकिन उसको लागू करने की जरूरत तब महसूस की गई जब चीनी की कीमत काफी बढ़ चुकी थी। इस ढिलाई से किसे फायदा हुआ- चीनी के व्यापारियों को, जबकि कंज्यूमर की चाय फीकी होती रही। अब भी बहुत देर नहीं हुई है। गन्ना उगाने वाले किसान को ज्यादा दाम दीजिए, देश में गन्ने की कोई कमी नहीं होगी। तत्काल चीनी की कीमत पर काबू लगाने के लिए दिल से स्टॉक लिमिट को लागू कराइए- ट्रेडर की हवा निकलेगी लेकिन कंज्यूमर को राहत दिलाने के लिए ऐसा करना ही होगा। गेहूं और चावल के मामले में भी सप्लाई मैनेजमेंट में गड़बड़ी साफ दिखती है। अनुमान के मुताबिक गेहूं उगाने वाले किसान को औसतन एक क्विंटल के लिए 1000 से 1050 रूपए ही मिलते हैं लेकिन बाजार में आते-आते इसकी कीमत 1800 रूपए हो जाती है। सारे खर्चों को जोड़ भी दिया जाए तो भी इतना मार्जिन किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। मतलब साफ है- किसान को कीमत नहीं मिलती, कंज्यूमर महंगाई के चलते आधे पेट खाने से काम चला रहा है, लेकिन एक छोटा सा तबका है जो हम सबको चूना लगा रहा है। ऐसे में यह नारा ज्यादा ठीक लगता है कि जागो सरकार जागो। ऐसी स्थिति में यह साफ है कि बजट के जरिए प्रणब बाबू खाघ-पदार्थों की महंगाई को कंट्रोल नहीं कर सकते हैं। यह महंगाई जमाखोरों और कालाबाजारियों की देन है। जिसे कंट्रोल करने के लिए प्रशासनिक तंत्र को दुरूस्त करने की जरूरत है। राज्य सरकारों के साथ तालमेल बढ़ाइए, फैसलों को ईमानदारी से लागू कराइए- खाने-पीने की चीजें अपने आप सस्ती हो जाएंगी। इस स्थिति में वित्तमंत्री का ध्यान उन मुद्दों पर होना चाहिए जहां पॉलिसी डायरेक्शन की जरूरत है। सरकारी घाटे को कम करने के ठोस फैसले लेने होंगे। इसके लिए अगर इंडस्ट्री को दिए गए राहत पैकेज को वापस लेने की जरूरत हो तो उन्हें ऐसा करना चाहिए। सारी राहत एक साथ वापस लेने से इंडस्ट्री की मुश्किलें कुछ बढ़ सकती हैं। ऐसे में जरूरत है कि उन राहतों को चरणों में वापस लिया जाए। साथ ही बजट में जीएसटी का रोडमैप होना चाहिए और हम सबको उम्मीद है कि डायरेक्ट टैक्स कोड को लागू करने की रूपरेखा भी बजट में होगी और महंगाई के जिन्न को फिर से बोतल में वापस लाने के लिए प्रशासन को चुस्त-दुरूस्त बनाना होगा। सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि कि कमोडिटी एक्सचेंज समेत कृत्रिम तरीके से भाव बढ़ाने में लगे कुछ मुट्ठीभर लोगों पर सरकारी एजेंसियां अपनी नकेल क्यों नहीं कसती हैं। आज देश की दो तिहाई आबादी जरूरी चीजों के लिए मोहताज है। फिर सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता क्या है? क्या सरकारी मशीनरी महंगाई से निपटने में सक्षम नहीं है? (लेखक सहारा मीडिया के एडिटर एवं न्यूज डायरेक्टर हैं)



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