महामारी से बचना है तो प्रकृति को बचाना होगाः स्वामी चिदानंद
कोरोना संकट के इस दौर में सावधानी और लॉकडाउन की लक्ष्मण रेखा के पालन में ही मानवता का बचाव निहित है।
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हमें प्रकृति के संकेतों को समझना होगा और इसके कायदों में रहते हुए ‘खुद के साथ प्रकृति को भी बचाने' के मूल मंत्र पर अमल करना होगा। यह कहना है आध्यात्मिक गुरु और परमार्थ निकेतन के संस्थापक स्वामी चिदानंद सरस्वती का। उनसे सहारा न्यूज नेटवर्क के सीईओ और एडि़टर इन चीफ उपेन्द्र राय ने खास बातचीत की। प्रस्तुत है विस्तृत बातचीत।
यह संकट का काल है। इस महामारी से बड़ी आबादी प्रभावित हुई है। ना इसके लिए इलाज दिखाई पड़ता है और ना ही कोई वैक्सीन। पूरा विश्व इसके सामने बेबस है। इससे बाहर निकलने की क्या राह है‚ जो आध्यात्मिक गुरु होने के नाते आप बताना चाहेंगेॽ
सबसे बड़ी राह और सबसे बड़ा वैक्सीन यह है कि हम इससे डरे नहीं लड़े नहीं। सावधानी बरतनी पड़ेगी। अपने घर के लोगों के साथ रहें। यूनिसेफ ने‚ भारत सरकार ने या डब्ल्यूएचओ ने जो सीमा रेखाएं बनाई हैं‚ उनके अंदर ही रहें। लॉकडाउन की लक्ष्मण रेखा का पालन करते रहें। 1918-20 में स्पेनिश फ्लू ने इसी तरह से विश्व में संकट की स्थिति पैदा की थी। 50 करोड़ लोग इससे प्रभावित हुए थे और करीब 5 करोड लोग इसकी चपेट में आकर मारे गए थे। उस वक्त भी कुछ लोगों ने लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं किया था। इन कुछ लोगों की वजह से बहुत लोगों को खमियाजा भुगतना पड़ा था। यह समय सोचने का है। सोचने से सीखने के इस समय में सावधानी ही सबसे बड़ी राह है।
आप इस आपदा को किस रूप में देखते हैंॽ क्या यह कोई दैवीय आपदा है या प्रकृति नाराज है या फिर यह कोई जैविक युद्ध हैॽ
इस महामारी के बाद पूरा विश्व थम सा गया है। अमीर–गरीब‚ राजा–रंक सब एक जगह पर रु क गए हैं। यह प्रकृति का संकेत है। प्रकृति इस तरह के संकेत देती रहती है। केदारनाथ का प्रलय भी एक संकेत था‚ लेकिन हमने उससे नहीं सीखा। अब कोरोना कहर के तौर पर यह संकेत सामने आ रहे हैं। मैं इसे सजा नहीं‚ बल्कि समाधान मानता हूं। हमें प्रकृति संभलने के कई मौके देती है‚ लेकिन हम चूक जाते हैं। 1720 में पहली बार फ़्रांस में इसी तरह की महामारी हुई थी‚ जिससे करोड़ों लोग प्रभावित हुए थे। 1820 में हैजा और कॉलरा ने एशिया में इसी तरह का हाहाकार मचाया था।
ज्ञान विज्ञान‚ अनुसंधान सभी इस छोटे से विषाणु के आगे बहुत बौने साबित हो रहे हैं। चांद पर पैर रखने वाले इंसान को सूझ नहीं रहा कि वह कैसे लड़ाई लड़े। ज्ञान विज्ञान इतने असहाय क्यों हो गए हैंॽ
प्रभु और प्रकृति के अपने कायदे हैं। कायदे में रहने में ही फायदा रहता है। हम जब प्रकृति के कायदे भूल जाते हैं तो प्रकृति अपने कानून से हमें समझाती है। अगर सजा मिल रही है तो निश्चित तौर पर गुनाह भी हुआ होगा। यदि हमें बचना है तो प्रकृति को बचाना होगा। इसे मूल मंत्र बनाना चाहिए‚ बचना है तो बचाओ। ईश्वर ने हमें एक खूबसूरत धरती दी‚ जिसे हमने नर्क बना दिया। समस्त विश्व के रूप में हमें एक परिवार दिया‚ लेकिन हमने दरारें पैदा करके धर्म मजहब में उसे बांट दिया। शिव ने अभी अपना तीसरा नेत्र थोड़ा सा खोला है। प्रकृति का सम्मान करना और वसुधैव कुटुंबकम की तरह रहना यदि हम शुरू करते हैं‚ तो यह कोप शांत हो जाएगा।
पर्यावरण बहुत स्वच्छ और सुंदर हो गया है। पर्यावरणविद् या आपकी तरह आध्यात्मिक गुरु जिस तरह के पर्यावरण का सपना देखते थे‚ वह आज पूरा दिखाई पड़ रहा है। महामारी के इस काल में इस परिवर्तन को आप कैसे देखते हैंॽ
बहुत ही सकारात्मक बदलाव हुआ है। आज सुबह ही हमने मां गंगा का एक वीडियो बनाया और इसमें गंगा का ऐसा रूप दिख रहा है‚ जैसा कभी सतयुग में होता होगा। जब मैं 60 के दशक में यहां आया था‚ तब गंगा ऐसी ही दिखती थी जैसी आज दिख रही है। वृंदावन के रमणरेती से भी हमारे पास कुछ लोगों ने वीडियो भेजा है। इनमें यमुना पहली बार इतनी सुंदर दिखाई दे रही है। जो काम करोड़ों अरबों रु पए से नहीं हो पाया‚ वह इस लॉकडाउन के काल में हो गया।
आप ऋषिकेश में परमार्थ निकेतन को चला रहे हैं। गंगा को हमेशा से देखते आए हैं। आपने अपने जीवन काल में गंगा का यह रूप कभी देखाॽ
गंगा मुस्कुरा रही है‚ खिलखिला रही है‚ हम गंगा जी के रोज दर्शन करते हैं‚ लेकिन अब यहां पर मछलियां गीत गा रही हैं। लंबी–ऊंची छलांग लगा रही हैं। ऐसा लगता है जैसे डॉल्फिन की तरह मछलियां गंगा में एक बार फिर पनप रही हैं। देश के यशस्वी और ऊर्जावान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शपथ लेने के दौरान ही स्वच्छ भारत अभियान में गंगा को साफ करने का पक्का इरादा दिखाया था। यदि आपका इरादा पक्का होता है तो प्रकृति भी आपका सहयोग करती है।
आप प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में भी शामिल थे। निर्णायक लोगों से आपकी मेल मुलाकातें होती रहती हैं। क्या कोरोना काल में भी आपकी प्रधानमंत्री से कोई बातचीत हुई हैॽ
कोरोना काल में तो प्रधानमंत्री से कोई बातचीत नहीं हुई‚ लेकिन दिल से उनसे चर्चा होती रहती है। प्रार्थना और यज्ञ के जरिए हम उनके प्रयासों के लिए प्रार्थना करते रहते हैं। यह भारत का सौभाग्य है कि उसे ऐसा प्रधानमंत्री मिला है‚ जो अपने विषय में नहीं‚ अपनों के विषय में सोचता है। हम पूरी तरह से लॉकडाउन का पालन कर रहे हैं। भीतर बैठकर भीतर जाने का कार्य कर रहे हैं। भीतर से ही मां गंगा को प्रणाम करते हैं। स्वास्थ्य कर्मी‚ स्वच्छता मिशन में जुटे लोग और मीडिया कर्मी लगातार ऐसे हॉटस्पॉट पर जा रहे हैं‚ जहां वह खतरे में रहते हैं। उनके लिए हम प्रार्थना और यज्ञ कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के बारे में आप क्या कहना चाहेंगेॽ लोगों में एक तरह से उनकी दीवानगी देखने को मिलती है‚ खासतौर पर वह गरीब और पिछड़े वर्ग के लोग‚ जो मन की बात को सुनते हैं। उन्हें सबसे ज्यादा शिकायतें होनी चाहिए‚ लेकिन वह उन्हें सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। आप प्रधानमंत्री में क्या विशेषताएं देखते हैंॽ
जब वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं थे‚ उससे भी बहुत पहले से मैं उन्हें देखता आ रहा हूं। ईश्वर ने क्या अद्भुत व्यक्ति बनाया है। वह एक संत ही हैं। आपने देखा कोरोना काल में जब तमाम लोग सियासत कर रहे हैं‚ ऐसे समय में भी वह लगातार लोगों की सेवा में लगे हुए हैं। लॉकडाउन के समय यदि आप उनकी आंखों में देखें तो कितनी ही रातें वह जागे हैं। हम परिवार में चार पांच लोगों के लिए परेशान हो जाते हैं तो सोचिए 135 करोड़ लोगों की चिंता कितनी परेशानी पैदा करती होगी। मेरा मानना है यह कोरोना काल हमारे देश के लिए कुछ लेकर आया है। भारत का नाम आने वाले समय में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। यह भी लिखा जाएगा कि कैसे एक प्रधानमंत्री ने लोगों को जगाया।
आपने प्रधानमंत्री को संत की उपाधि तक दे दी क्योंॽ
क्योंकि मैंने उन्हें बहुत नजदीक से देखा है। वह पद और प्रतिष्ठा के लिए काम करने वाले व्यक्ति नहीं हैं। वह निष्ठा के लिए काम करने वाले व्यक्ति हैं। वह ऐसे व्यक्ति हैं‚ जिन्हें पूरा देश जब चुन रहा था‚ वह केदारनाथ की गुफा में बैठे थे। ईश्वर से तेरा तुझको अर्पण की बात कर रहे थे। संत अपने लिए नहीं जीते वह प्रभु की मूरत को हर सामान्य जन में देखते हैं। उनके लिए नर ही नारायण होता है। मानव सेवा ही सबसे बड़ा धर्म होता है। मैं अपने मुस्लिम मित्रों से भी कहता हूं कि आपको ऐसा इंसान और ऐसा प्रधानमंत्री कभी नहीं मिलेगा।
कोरोना की कोई कारगर दवा नहीं है। मनुष्य इस पर कब तक विजय प्राप्त कर लेगा और इस दौर में हमारा आचरण क्या होना चाहिएॽ
अब तो कोरोना के साथ जीना पड़ेगा। इसके साथ जीने का तरीका ढूंढना चाहिए। अपनी जीवनशैली को बदलना होगा‚ अपने आप को बदलना होगा। आने वाला वक्त प्रकृति को बचाने का है। हमें ग्रीन विजन के साथ प्रकृति के साथ खड़े होना होगा। प्रकृति हमें खुद बचा लेगी॥
गंगा का एक नया रूप देखने को मिल रहा है। क्या यह सही समय नहीं है जब प्रधानमंत्री से बात की जाए और गंगा की स्वच्छता को संजो कर रखने पर कुछ काम किया जाएॽ
हम इस पर लगातार प्रयास कर रहे हैं। 1 जून से लेकर 5 जून तक एक कांफ्रेंस रखी गई है‚ जिसमें तमाम वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों को आमंत्रित किया गया है। हमारा प्रयास है कि इसमें शिक्षा मंत्री और जलशक्ति मंत्री को भी बुलवाया जाए। 1 जून को गंगा दशहरा है और 5 जून को पर्यावरण दिवस है। यह समय चार महत्वपूर्ण चीजों का है– इन्फॉर्मेशन‚ इंस्पिरेशन‚ इनोवेशन और इंप्लीमेंटेशन। लोगों तक स्वच्छता और इसके महत्व की जानकारी पहुंचानी होगी। संत समाज को इससे जोड़ना होगा‚ जो इंस्पिरेशन का काम करेंगे। आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करना होगा और इन सभी चीजों का क्रियान्वयन तय समय सीमा में करना होगा। इस काल में स्वयं को स्वच्छ कर गंगा ने सिद्ध कर दिया है कि हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते। बस जो कुछ गलत कर रहे हैं उसे बंद करने की जरूरत है। इंडस्ट्री और सीवेज का जो जहर हम गंगा नदी में डाल रहे हैं उसे बंद करना होगा। हमें ग्रीड कल्चर से ग्रीन कल्चर की तरफ जाना होगा। यानी लालच से प्रकृति की तरफ जाना होगा।
आपने एक परंपरा को आगे बढ़ाया‚ जिसमें अध्यात्म और ज्ञान–विज्ञान का एक सामंजस्य करने की कोशिश की। हम लोग आध्यात्म में तो गहरे उतरे हैं लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं। पश्चिम को जब अध्यात्म की जरूरत होती है तो वह भारत की ओर देखता है लेकिन जब हमें विज्ञान की जरूरत होती है तो हमें पश्चिमी देशों की तरफ देखना पड़ता है। आप पश्चिम और पूर्व को एक बिंदु पर लाने का प्रयास कर रहे हैं। किस तरह की चुनौतियां आपको झेलनी पड़ती हैंॽ क्योंकि हमारे देश में भी संत समाज इन चीजों को पूरी तरह से नहीं समझ पाता है।
आप कुछ भी करते हैं तो समस्याएं तो आती ही हैं। लेकिन जहां समस्याएं आती हैं‚ वहां समाधान ढूंढने के लिए भी आप निकलते हैं। आपको अहंकार को त्यागना होगा। कुछ को अपने साथ जोड़ना होगा और कुछ लोगों से जुड़ना होगा। आप जहां से भी गुजरते हैं‚ वहां छोटे–छोटे परिवर्तन भी करते हैं तो आपका चलना सार्थक है। मैंने महामंडलेश्वर और साधु संत समाज के तमाम लोगों से कई बार बातें की हैं। दोबारा से कुंभ आ रहा है। पिछले कुंभ में भी मैंने एक कुंभ यात्रा शुरू करने की बात की थी। कोरोना वायरस के इस काल के बाद कुंभ यात्रा बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसा ना हो कि हमें कुंभ को भी ऑनलाइन ही देखना पड़े। पॉलिथीन थर्माकोल‚ इनका इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करना होगा और प्रकृति से जुड़ना होगा। हमें कुंभ के लिए बड़े–बड़े गेट बनाने की जरूरत नहीं है‚ बल्कि भीतर के गेट खोलने की जरूरत है।
बाहर की आग को बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड और आधुनिक विज्ञान काम आता है‚ लेकिन भीतर की आग से निपटने के लिए अध्यात्म की जरूरत होती है। लोग अपनी रचनात्मकता को पूरी तरह से भूल कर अब अवसाद के शिकार होते जा रहे हैं। कोरोना वायरस ने हमें एक बार फिर कोरा कागज बनने का मौका दिया है। कोरे कागज पर ही कुछ लिखा जा सकता है लेकिन लोग इस समय में तड़प रहे हैं या दोबारा व्यस्त और भागदौड़ वाले जीवन का इंतजार कर रहे हैं। हम इस समय के महत्व को क्यों नहीं समझ रहे हैं और यह बेचैनी क्यों हैॽ
जब आप भीतर से खाली होते हैं तो बाहर से उसे भरने की कोशिश करते हैं। जब आप भीतर से भर जाते हैं तब आपको किसी चीज की जरूरत नहीं होती। जिंदगी भर की कमाई 2 महीने में लुट जाएगी‚ इस तरह की लोगों की सोच बन गई है‚ क्योंकि यह लोग भीतर से पूरी तरह से खाली हैं। अंतर्मुखी होना सीखा नहीं है। बाहर सारी चीजों को सेट करते करते हर व्यक्ति भीतर से अपसेट हो जाता है और मरते वक्त यही कहता है कि कुछ कमी रह गई है। अध्यात्म भीतर से भरने का नाम है। लॉकडाउन की लIमण रेखा ने हमें भीतर से खाली होने का एक मौका दिया। अब कुछ करना चाहिए जो हमें भीतर की ऊर्जा से भर दे। इसके लिए योग‚ ध्यान‚ प्राणायाम‚ मौन जैसी चीजें हमारे पास है। यह भीतर से हमें भरती हैं।
लॉकडाउन की सबसे बुरी मार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर पड़ी है। आप इसे कैसे देखते हैंॽ
मेरे लिए यही सबसे बड़ी चिंता है। इस समय असली आध्यात्मिकता यही है कि इन लोगों की सेवा की जाए। जिसने भारत के आत्मविश्वास को बढ़ाया‚ वही मजदूर आज बेबस दिखाई दे रहा है। उनके दर्द को पहचानने की जरूरत है। इन्हें आज पैकेट और पैकेज से पहले सुरक्षित इनके परिवारों से मिलवाने की जरूरत है। बड़ी–बड़ी बिल्डिंग्स बाद में बनती रहेंगी। सबसे पहले इन्हें ठिकाने पर पहुंचाया जाना चाहिए। यह लोग भी जब अपने घरों में पहुंचते हैं तो इन्हें पूरी तरह से होम क्वॉरंटाइन रहना चाहिए।
विश्लेषकों का भी मानना है कि इस महामारी के बाद में दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी। सामाजिक संबंधों को लेकर किस तरह की चुनौतियां हमारे सामने आ सकती हैंॽ
बहुत सारी चुनौतियां आ सकती हैं। व्यापार‚ व्यवसाय और यात्राओं के साथ–साथ हमारे व्यवहार पर भी इसका बहुत असर पड़ने वाला है। भाव का यह देश अब भय से भर रहा है और हमने हर चीज में शक करना शुरू कर दिया है। हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि कहीं ऐसा ना हो मानव तो बच जाए लेकिन मानवता खत्म हो जाए। बहुत जरूरी है कि अंतर्मुखी होकर हम जीना सीखें। केवल इंटरनेट का इस्तेमाल ना करें बल्कि इनरनेट का भी इस्तेमाल करें।
कोरोना काल भय और अनिश्चितता का माहौल लेकर आया है। थोड़ी सी ढील मिलने के बाद ही शराब और गुटका लेने वालों की लंबी लंबी लाइन देखने को मिली। महामारी लोगों को ज्यादा आक्रामक और असुरक्षित बना रही है। इससे निजात कैसे मिलेगीॽ
खुद को बदलना होगा। मुझे बेहद दुख हुआ‚ जब करोड़ों रु पया शराब के लिए लोग बर्बाद करते दिखाई दिए। 40 साल पहले जब मैं अमेरिका गया था‚ तब वहां एक स्लोगन पढ़ा था–वेकअप विथ मेकअप। यानी ऐसा मेकअप कि जब आप सुबह उठे तो भी वह जस का तस मिले। यही हमारी हालत हो गई है। हम बाहर के मेकअप में इतने ज्यादा उलझ गए हैं कि भीतर की सुंदरता को भूल गए हैं। इसीलिए खालीपन है। इस खालीपन को दूर करने के लिए हम छुट्टियां‚ रिसॉर्ट‚ होटल जाना‚ फिल्में देखना‚ या बोतल का इस्तेमाल करना शुरू कर चुके हैं। जैसे ही बोतल खत्म होती है यह मजा भी खत्म हो जाता है। मस्ती इंसान के भीतर होती है‚ जिसे इन छोटी–छोटी चीजों से कभी ट्रिगर मिल जाता है। साधु महात्मा जंगल में रहते हैं‚ उनके पास कोई शॉपिंग प्लाजा नहीं होता‚ लेकिन उनसे आप जब भी पूछेंगे कैसे हैं तो वह कहेंगे मस्त हैं।
आप उस संत परंपरा से आते हैं‚ जहां आपने आधुनिक शिक्षा को भी अर्जित किया। संस्कृत और दर्शन में स्नातकोत्तर किया। उसके बाद पर्यावरण के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। समाज का आपको कितना साथ मिलाॽ
जब आप अपने लिए कुछ नहीं करते हैं तो प्रकृति भी आपका सहयोग करती है और जब प्रकृति आपके साथ खड़ी होती है तो सारा विश्व आपका सहयोग करता है। मैं जहां गया‚ वहां पहले से ही सारी चीजें सोच के मुताबिक हो गइ। चाहे सुनामी का समय हो या केदारनाथ की आपदा हो। आप के संकल्प के साथ ही साधन अपने आप इकट्ठा होने शुरू हो जाते हैं। हम कुछ नहीं करते हैं। करने वाला तो कोई और है। हम सिर्फ निमित्त मात्र हैं।
आपने धार्मिक रीति रिवाज और कर्मकांड जैसे मूर्ति विसर्जन और अंतिम संस्कारों में भी बदलाव की लगातार बात की है‚ लेकिन कर्मकांड ऐसी चीज है जिससे लोग डिगते नहीं है। आपको इसमें कितनी सफलता मिल पाईॽ
अब डिगना होगा‚ क्योंकि यदि डिगेंगे नहीं तो धरती बचेगी नहीं। धरती बचेगी तभी धर्म बचेगा। अब हमें इनोवेटिव होना पड़ेगा। कुंभ में हम कुछ ऐसे नमूने लेकर आएंगे‚ जिससे लोगों में जागरूकता बढ़े। हम सात से आठ करोड़ पेड़ सिर्फ अंतिम संस्कारों के लिए और होलिका दहन के लिए काट देते हैं। यह वह पुराने वृक्ष हैं‚ जो हमारे पूर्वजों ने लगाए थे। मैं लगातार कह रहा हूं कि इन संस्कारों के लिए पेड़ों को नहीं काटना चाहिए। हमारी गऊएं सड़क पर घूमती रहती हैं। हम हरित शवदाग्रह बना सकते हैं। यह जलवायु के लिए भी अच्छा है और पेड़ों को भी बचाएगा। इससे राख को नदी में विसर्जित करने से भी मुक्ति मिलेगी। शवदाह गृह के पास प्रियजन स्मृति पार्क बनाए जाने की जरूरत है। जब फूल चुने जाते हैं तो कुछ अस्थियों को प्रवाहित किया जाए और बाकी को यहां डाला जाए और पौधे लगाए जाएं।
जब कोई योगी सामाजिक कार्यों में लगता है तो कई बार विरोध का भी सामना करना पड़ता है। क्या आपको भी विरोध का सामना करना पड़ाॽ
यदि लय स्पष्ट हो तो कोई विरोध आप को नहीं रोक सकता है। आपको प्रतिक्रिया नहीं देनी है‚ बल्कि उन लोगों को समझाना है। कई मौकों पर आत्म विश्लेषण की भी आवश्यकता पड़ती है। रिएक्ट ना करें रेस्पॉन्ड करें। बदले की भावना से काम ना करें बदलाव के लिए काम करें।
आप सभी धर्मों को साथ लेकर चलने के लिए काम कर रहे हैं। दूसरी तरफ अन्य धर्म धर्मान्तरण का ही रास्ता अपना रहे हैं। कैसे आपके मिशन को आगे बढ़ा रहे हैंॽ
मैंने गंगा की गोद में ही अध्यात्म को सीखा है। गंगा के तट पर गोमुख से ऋषिकेश तक में गंगा को ही देखते आया हूं। नदी कभी किसी से कुछ लेती नहीं है और कभी किसी में भेदभाव नहीं करती है। वह किसी धर्म मजहब के हिसाब से लोगों को नहीं देखती। मैंने अलग–अलग धर्मों के सभी बड़े लोगों से इस मसले पर बात की। 1 हजार मदरसों‚ मंदिरों तमाम जगहों पर पेड़ लगाने की मुहिम भी चलाई। कुल मिलाकर सभी के दिलों में एक दूसरे के लिए प्रेम होना जरूरी है।
पालघर की घटना दिल दहला देने वाली थी। यह समाज के एक उद्वेलित चेहरे को दिखाती है। इस तरह की मनोदशा पर क्या कहेंगेॽ
जब हम संस्कृति को भूल जाते हैं तो विकृति पैदा हो जाती है। वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा को हम भूल चुके हैं। जब यह तस्वीरें देखीं तो रूह कांप गई कि लोग ऐसा भी कर सकते हैं। हिंसा जब धार्मिक रूप ले लेती है तो वह बेहद खतरनाक हो जाती है। यह हिंसा शारीरिक‚ मौखिक सांस्कृतिक कई किस्म की हो सकती है। मूल मुद्दा यह है कि लोगों के जेहन में मोहब्बत खत्म हो गई है और नफरत भर गई है। सभी को अपने धर्म का पालन करने का पूरा अधिकार है और धर्मान्तरण करवाना मानवाधिकारों का उल्लंघन है। पुलिस वाले भी वहां जिस तरह की हृदय हीनता दिखा रहे थे‚ वह दिल दहला देने वाला है। धर्मान्तरण की वजह से इस तरह की घटनाएं हो रही हैं।
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