बांसुरी के मसीहा थे पंडित पन्नालाल घोष

Last Updated 20 Apr 2009 03:35:32 PM IST


पुण्यतिथि 20 अप्रैल पर विशेष पंडित पन्नालाल घोष बांसुरी के मसीहा नयी बांसुरी के जन्मदाता और भारतीय शास्त्रीय संगीत का युगपुरूष जिसने लोक वाद्य बांसुरी को शास्त्रीय के रंग में ढालकर शास्त्रीय वाद्य यंत्र बना दिया। पंडित पन्नालाल घोष के बारे में प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित रोनू मजूमदार ने बताया पन्नाबाबू शास्त्रीय बांसुरी के जन्मदाता हैं और उन्हें बांसुरी का मसीहा कहना समीचीन होगा। जिन्हें बांसुरी को लोक वाद्य से शास्त्रीय वाद्य यंत्र के रूप में स्थापित करने का श्रेय जाता हैं। उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था कि 1930 में उनका पहला एलपी जारी हुआ। उन्होंने बताया कि सेवन होल तकनीकी का विकास पन्नाबाबू ने किया और बांसुरी की उनकी विरासत को आगे ले जाने का काम उनकी बाद की पीढ़ी के बांसुरी वादक कर रहे हैं। पंडित मजूमदार ने कहा कि आने वाली सदियां पन्ना बाबू के काम को कभी भूल नहीं सकती हैं। उन्हीं का प्रयास है कि कृष्ण कन्हैया की बांसुरी का आज के फ्यूजन संगीत में भी अहम स्थान है। उन्होंने कहा कि बांसुरी को शास्त्रीय वाद्य के रूप में लोगों के दिलों में बसाने का काम पन्ना बाबू ने शुरू किया था और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जैसे बांसुरी वादकों ने इस वाद्य यंत्र को विदेशों में लोकप्रिय कर दिया। अमल ज्योति घोष के नाम से जाने जाने वाले पंडित पन्नालाल घोष का जन्म 31 जुलाई 1911 में पूर्वी बंगाल के बारीसाल में हुआ था। शुरू में उनका परिवार अमरनाथगंज के गांव में रहता था जो बाद में फतेहपुर आ गया। उनका जन्म संगीत सुधी परिवार में हुआ था। उनके पिता अक्षय कुमार घोष सितार वादक थे और उनकी मां सुकुमारी गायक थीं। हारमोनियम विजाड उस्ताद खुशी मोहम्मद खान उनके पहले गुरू थे और ख्याल गायक पंडित गिरजा शंकर चक्रवर्ती एवं उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब से भी उन्होंने शिक्षा हासिल की थी। 1940 में पन्नाबाबू ने संगीत निर्देशक अनिल विश्वास की बहन और जानी मानी पार्श्व गायिका पारूल घोष से विवाह कर लिया। इसके पहले 1938 में पन्नालाल घोष ने यूरोप का दौरा किया और वे उन आरंभिक शास्त्रीय संगीतकारों में से एक थे जिन्होंने विदेश में कार्यक्रम पेश किया। मुगले आजम, बसंत बहार, बसंत दुहाई, अंजान और आंदोलन जैसी कई प्रसिद्ध फिल्में हैं जिसके संगीत के साथ पंडित पन्नालाल घोष का नाम जुड़ा रहा। पारंपरिक भारतीय वाद्य यंत्र बांसुरी की अतुल्य विरासत अपने शिष्य और प्रशंसकों के हाथों में सौंप कर 20 अप्रैल 1960 में पन्नाबाबू हमेशा के लिए इस दुनिया से कूच कर गये।



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